Saturday, May 3, 2025
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अब हत्या की गुत्थी आसानी से सुलझेगी

Ravivani 31


पहली फोरेंसिक वेब कोलकाता में 1952 में चालू हुई थी। फोरेंसिक साइंस और उसके तमाम टूल्स सालों-साल से गुनाह की परतें खोलने में अपनी मजबूत पकड़ बनाते आ रहे हैं। फिंगर प्रिंटों का विश्लेषण करना पहला पुख्ता तरीका था इंसान की व्यक्तिगत पहचान का। फिंगर प्रिंट यानी अंगुलियों के निशान बचपन से बुढ़ापे तक समान रहते हैं। जब- जब व्यक्ति कुछ छूता है, तो तेल, मैल या पसीने के अंश वहीं छूट जाते हैं।

बीते साल जब से गृह मंत्रालय ने छह साल से अधिक के गंभीर अपराधों के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य बनाने पर जोर दिया है, तब से राज्यों की पुलिस मोबाइल फोरेंसिक वैन से लेस करने की तैयारियां भी शुरू हो गर्इं थीं, लेकिन दिल्ली पुलिस इन वेनों से लेस होने वाली देश की पहली पुलिस बन गई है। पुलिस आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में छह साल से ऊपर के सजा वाले सबसे ज्यादा अपराधी मामले अंजाम दिए जाते हैं।

दिल्ली में सालाना 4,910 अपहरण, 4,530 चोरी, 4,393 ठगी और 1,950 रेप के मामले दर्ज होते हैं। इनके सहयोग से जुर्म साबित होने और गुनहगारों पर शिकंजा कसने की रफ़्तार पकड़ेगी। अपराध सुलझाने में फुल-प्रूफ तकनीक हाथ में आ जाएगा। एक महीने के अंदर दिल्ली पुलिस के पास ऐसी 15 फोरेंसिक वेन हो जाएंगी। एक वेन की कीमत 50 लाख रुपये के आसपास है। इसे बनाया है गुजरात के गांधीनगर की नेशनल फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी ने।

इन मोबाइल वेनों से फोरेंसिक जांच में खून, लार व शरीर का अन्य कोई तरल पदार्थ, बाल, दांत, अंगुलियों के निशान, जूते व टायरों के निशान, विस्फोटक, जहर वगैरह तक की वैज्ञानिक जांच मौका- ए- वारदात पर पहुंच कर हो सकती है। इन्हें करने के लिए फ्लड लाइट्स, सीसीटीवी, कैमरे, सूक्ष्म बॉयलोजिकल एग्जामिनेशन, माइक्रोस्कोप वगैरह का पुख्ता इंतजाम हर वेन में है। बीते साल दिल्ली के सनसनीखेज श्रद्धा हत्याकांड में कातिल पर शिकंजा कसने के लिए फोरेंसिक जांच की जरूरत पर बल दिया जा रहा है।

पहली फोरेंसिक वेब कोलकाता में 1952 में चालू हुई थी। फोरेंसिक साइंस और उसके तमाम टूल्स सालों-साल से गुनाह की परतें खोलने में अपनी मजबूत पकड़ बनाते आ रहे हैं। फिंगर प्रिंटों का विश्लेषण करना पहला पुख्ता तरीका था इंसान की व्यक्तिगत पहचान का। फिंगर प्रिंट यानी अंगुलियों के निशान बचपन से बुढ़ापे तक समान रहते हैं। जब- जब व्यक्ति कुछ छूता है, तो तेल, मैल या पसीने के अंश वहीं छूट जाते हैं। इसी से अंगुलियों के निशान उभरते हैं। वैज्ञानिक शोधों से जाना है कि फिंगर प्रिंट समय के साथ भी नहीं बदलते। साल 1892 में छपी किताब ‘फिंगर प्रिंटिंग’ में सर फ्रांसिस गलेटन ने सुझाया था कि हर फिंगर प्रिंट के तीन मुख्य चरित्र होते हैं। पहला, लूप यानी चक्कर या घुमाव, दूसरा व्हर्ल यानी पत्ता- फूल नुमा और तीसरा, आर्च यानी मेहराब।

इन तीनों चरित्रों को जोड़- तोड़ कर करीब 60,000 विभिन्न श्रेणियां बनाने में मदद मिली। आगे चल कर एडवर्ड हेनरी ने दो और चरित्र शामिल किए-टेंटेड मार्च (खेमों में ढका मेहराब) और रेडियल (किरणों जैसा)। इन्हीं पांच किस्मों के आधार पर फिंगर प्रिंटिंग एनालिसिस का विकास किया गया। साल 1910 में अमेरिका में फिंगर प्रिंटिंग से गुनहगार साबित होने वाला दुनिया का पहला व्यक्ति था थॉम्स जेनिंग्स। साल 1972 के बाद से फिंगर प्रिंट्स को कम्प्यूटर के सहारे मैच किया जाने लगा है। और, 1989 से तो इन्हें आॅन लाइन भेजना या पाना भी मुमकिन हो गया है। बताते हैं कि अब आधे सेकंड से भी कम समय में कम्प्यूटर दस प्रिंटों के सेट का 5 लाख प्रिंटों से मिलान कर सकता है।

जांचकर्ताओं के लिए हमेशा ही खोज का विषय होता है कि मारने वाले ने गोली पिस्तौल से चलाई या बंदूक से, और गोली कितनी दूरी से चलाई गई। वास्तव में, पिस्तौल से गोली के अटूट रिश्ते पर से पर्दा हटा 1916 में, और ऐसा मुमकिन किया शिकागो, अमेरिका स्थित नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी ने। आज अमेरिका की शिकागो स्थित नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी को फोरेंसिंक साइंस की बुनियाद के तौर पर ख्याति प्राप्त है।

आज भी अमेरिका की तमाम पुलिस यूनिवर्सिटी और क्राइम लेबोरेटरीज, नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी की ओर रुख करती है। ऐसी पूछ का श्रेय जाता है यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. केल्विन एच. गॉडार्ड को। उन्होंने ही सबसे पहले बन्दूकों, पिस्तौलों और गोलियों पर खासा शोध किया था। लेकिन इस शोध कार्य में डॉ. केल्विन एच. गॉडार्ड की माफिक ही जोरदार भूमिका रही न्यूयॉर्क स्टेट प्रोसिक्यूटर दफ्तर के चार्ल्स ई वैट को। उसे गुनाह के मामले सुलझाने का शौक था। साल 1916 में ही आॅरलीन कंट्री, न्यूयार्क में बंदूक से कत्ल के मामले में उसका उल्लेखनीय योगदान रहा।

कहते ही हैं कि खून झूठ नहीं बोलता। असल में, 1930 में डॉ. कार्ल लैंडस्टीनर ने पहली बार दुनिया को बताया कि खून को मुख्यत: चार ग्रुपों में बांट सकते हैं- ओ, ए, बी और ए बी। विज्ञान जगत को डॉ. कार्ल लैंडस्टीनर के इसी अहम योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। काफी साल बाद खून के ग्रुपों के आधार पर गुनहगारों को पकड़ने का काम भी शुरू किया गया। स्कॉटलैंड के फोरेंसिक एक्सपर्ट एलिस्टेयर आर. ब्राउनली ने ब्रिटिश फोरेंसिक सोसायटी को बताया, ‘खून के धब्बे इंसानी शरीर के बाकी हिस्सों की तरह गुनहगारों को धर दबोचने में खासा रोल निभाते हैं।’ खून के ग्रुप से गुनहगारों का पीछा करने के शुरुआती दौर का एक मामला 1965 में अमेरिका के छोटे-से गांव नॉरनेगन का था।असल में, खून के ग्रुप की बारीकियां 1930 में जानने के बाद से गुनहगारों की नकेल कसी तो बेकसूरों ने राहत की सांस ली।

खून के अलग-अलग धब्बे बताते है कि शरीर से खून कैसे बहा होगा? नस कटने से खून का फव्वारा फूटता है, ड्रिप से खून धीरे- धीरे बहता है, किसी घाव से रस सकता है या फिर शरीर में घुसे नुकीले हथियार को निकाल कर दुबारा घुसाने पर खून झर- झर बह उठता है। 1930 के दशक में पहलेपहल स्कॉटलैंड के पैथोलॉजिस्ट जॉन ग्लैस्टर ने ब्लड पैटर्न ने जाहिर किया था कि खून के छींटों या धब्बों से इंवेस्टीगेटर खूनी बॉडी का पोजिशन और घायल को मौका-ए- वारदात से हटाने का तरीका बखूबी जान सकता है। खून को गिरी बूंदों का आकार ही खासमखास जानकारियां मुहैया कराने में सक्षम है।

खून का अनुपात खुलासा करता है कि बूंद बहने में कितने दम की जरूरत पड़ी होगी ? खून के निशानों की बनावट जाहिर करती है कि दिशा और कोण क्या है ? बेसिक ट्रिगोनोमेट्री (त्रिकोणमिति) के जरिए इंवेस्टीगेटर खून के स्रोत की 3-डी रीक्रिएशन कर सकता है।

फोरेंसिक एंटामोलॉजिस्ट (कृमि विशेषज्ञ) लाश पर चिपटे कीड़ों के बर्ताव और स्थितियों से कत्ल का राज खोलने के माहिर होते हैं। कीड़ों के जरिए मौत के समय और स्थान का बखूबी अंदाजा लगाया जाता है। एंटोमोलॉजी बखूबी इशारा करती है कि मौत किस मौसम और जगह पर हुई होगी? एंटामोलॉजी (कृमि शास्त्र) को इजाद और विकसित किया है अमेरिका के जाने-माने फिजीकल एंथ्रोपोलॉजिस्ट डॉ. विलियम के. बास ने। वह क्नोक्सविले, अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी आॅफ टेनीसी की एंथ्रोपोलॉजिकल रिसर्च फेसिलिटी के तत्कालीन प्रभारी थे। वहां ढाई एकड़ मैदान पर मानव अवशेषों के सड़ने पर गहन अध्ययन किए जाते हैं। ऐसे मैदान को ‘बॉडी फार्म’ कहते हैं।

डॉ. विलियम के. बास नर कंकालों की शिनाख़्त के माहिर हैं। उनकी कीड़ों के जरिए मौत के तमाम खुलासों की स्टडी बीते 50 सालों से जानी जाती है। जब कोई इंसान मरता है, तो शरीर तुरन्त सड़ने लगता है और डाइजेस्टिव सिस्टम में मौजूद एंजाइम्स टिशू को खाने लगती है। शरीर सड़ता है और बदबू उड़ने लगती है। इसी बीच खटमल- मकड़ी समेत किस्म- किस्म के कीड़े- मकोड़े शव की ओर खिंचे आते हैं। बस इन्हें ही मापने और रिकार्ड करने से मौत के राज तक पहुंचने में मदद मिलती है।उधर यूनिवर्सिटी आॅफ हवाए, अमेरिका के प्रोफेसर आॅफ एंटोमोलॉजी एम. ली गौर की किताब ‘ए फ़्लाई फॉर द प्रोसीक्यूशन’ में एंटोमोलॉजिस्टों के लिए मौत की तहकीकात में मददगार जानकारियों का भंडार है। कीड़ों से लिपटी लाश का गौफ से पहला सामना हुआ 1984 में।

ज्यादातर इंवेस्टीगेटर मैल, मिट्टी या धूल की बजाए फाइबर या बाल की निशानी को ढूंढ़ने पर ज्यादा गौर करते हैं। अमेरिका की जानी-मानी ट्रेस एवीडेंस स्पेशलिस्ट (सबूत की निशानी विशेषज्ञ) फेए स्प्रिंगर ने बीसेक साल पहले एक मर्डर मिस्ट्री की तफ्तीश के दौरान, व्यक्ति को कार के रंग और रंग के गलीचे का तंतु लाश पर से ढूंढ निकाले। ऐसे नतीजों तक पहुंचने के लिए हाई पॉवर माइक्रोस्कोपिक परख और तकनीकी एक्सपर्ट दोनों की एक साथ जरूरत पड़ती है। सबसे पहले लिफ्ट टेप या वेक्यूम के सहारे कपड़ों, बालों, फर्नीचरों, कम्बलों वगैरह से निशानी उठाते हैं। फिर जांच की जाती है कि निशानियां कुदरती हैं या निर्मित। कुदरती तंतु पौधों (जैसे रुई) और जानवरों (जैसे ऊन) से आते हैं। निर्मित तंतु पॉलीमेयर के होते हैं। तमाम तंतुओं की परख ‘स्पेक्ट्रोमीटर’ नामक खास उपकरण से की जाती है । ‘स्पेक्ट्रोमीटर’ का आविष्कार सन् 1859 में दो जर्मन साइंटिस्टों ने किया था। आज ज्यादा पुख्ता नतीजों के लिए माइक्रो-स्पेक्ट्रोमीटर का इस्तेमाल किया जाता है।

फोरेंसिक एंथ्रोपोलोजी की स्टडी हड्डियों के विज्ञान की देन हैं। कुछ फोरेंसिक एंथ्रोपोलोजिस्ट लाश के गलने और कीड़ों की बारीकियों के विशेषज्ञ हैं। फोरेंसिक एंथ्रोपोलोजिस्ट दंत विशेषज्ञ, पैथोलोजिस्ट और जासूसों के साथ एकजुट हो कर मौत में साजिश के हाथ का खुलासा करते हैं। और, इंसान की मौत के समय तक का सही अंदाजा लगा लेते हैं। उल्लेखनीय है कि इंसानी कंकाल में कुल 206 हड्डियां होती हैं। औसत मर्द और औरत की हड्डियों का वजन क्रमश: 12 पौंड और 10 पौंड होता है।

इंवेस्टीगेटर हड्डियों की बारीकियों से देख-परख कर मृतक का लिंग, उम्र, जाति, कद, जिस्म का आकार, पूर्व ट्रामा और मौत की वजह की तह तक पहुंचते हैं। फोरेंसिक पहचान के तहत दांतों को मृतक के डेंटल रिकार्ड से मिलाते हैं। फिर कुछ डी.एन.ए. एनालिसिस किए जाते हैं। और, खोपड़ी को आकार देकर रिकंस्ट्रक्शन या फेशियल रिविजन की जाती है।

साल 1985 से डीएनए फिंगर प्रिंटिंग का खासा बोलबाला शुरू हुआ। प्रोफेशनल्स इसे जेनेटिक आइडेंटीफिकेशन, डीएनए प्रोफाइलिंग या डीएनए एनालिसिस कहते हैं। डीएनए आइडेंटीफिकेशन के दो तरीके हैं- रिस्ट्रिक्टिव फ्रेगमेंट लेंथ पॉलीमॉरफिजम और पॉलीमोरेस चैन रिएक्शन। डी. एन. ए. महारथी कीथ इनमैन लॉस एंजिल्स और आॅरेंज के शेरिफ डिपार्टमेंट में रहे हैं। उन्होंने प्राइवेट क्राइम लेबोरेटरी ‘फोरेंसिक साइंस सर्विस’ के लिए भी काम किया है। कीथ इनमैन का कहना है कि डीएनए को फिंगर प्रिंटिंग कहना गलत होगा। क्योंकि रीयल फिंगर प्रिंटिंग हमशक्ल जुड़वां की अंगुलियों के निशानों में भी फर्क बताती है, जबकि डीएनए हमशक्ल जुड़वां का फिंगर प्रिंट भी अलग- अलग होता है।

ए, बी और ओ ब्लड ग्रुप की तरह डीएनए अलग-अलग तो होता है, साथ-साथ ज्यादा भिन्नता दर्शाता है। बीती सदी की शुरुआत में ही, फोइबस लीवाइन के आविष्कार से जाहिर हुआ कि हर इंसानी सेल्स के न्यूक्लीयस में दो किस्म के एसिड होते हैं- आरएनए या कहें रिबूक्लिक एसिड, और डीएनएए या कहें डीआक्सीरिबोन्यूक्लिक एसिड। हर सेल के न्यूक्लीयस में डीएनए से बने 23 जोड़ी क्रोमोसोम्स होते हैं, जो व्यक्ति के चरित्र और शारीरिक संरचना का ब्लूप्रिंट बन कर उभरते हैं।


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