Friday, July 5, 2024
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पंचायती राज : गांधी का बिखरता सपना

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NAZARIYA 3


PREM VISHALपंचायती राज जिसके अंतर्गत गांवों को प्रतिनिधित्व देकर सशक्त, आत्म निर्भर, समता मूलक समाज बनाने की व्यवस्था की गई थी, आज बाहुबल, जातिवाद, अपराधीकरण, धार्मिक वैमनस्य के भेंट चढ़ गया है। पंचायत चुनाव में ऐसे तत्वों, जिन्हें सभ्य समाज असामाजिक कहता है कि बहुलता इतनी बढ़ गई है कि एक ईमानदार, शिक्षित और साफ-सुथरी छवि वाला नागरिक अपने प्रतिनिधित्व का दावा तक नहीं कर सकता। सरकार द्वारा आरक्षण की मदद से पिछड़ों, महिलाओं, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को अगर प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की भी जाती है तो ये तथाकथित समाज के बड़े और रसूख अपने घर के नौकरानियों, मजदूरों, ड्राइवरों आदि को प्रत्याशी बनाकर उनको चुनाव जितवा देते हैं और फिर सत्ता का सुख स्वंय भोगते हैं। चुनाव में जिस प्रकार पैसा, शराब, डराना, धमकाना, हत्या लूट आदि का बोलबाला है, उसने चुनावी प्रक्रिया को, जिससे प्रतिनिधित्व दिया जाता है, एक गंदा मजाक बनाकर रख दिया है। यह सिर्फ पंचायती चुनाव में नहीं, बल्कि देश में होने वाले हर चुनाव का कमोबेश यही अफसाना है।

वैदिक काल से अंग्रेजों के आगमन तक ग्राम स्वराज्य स्वायत्त संस्थानों के रूप में चलती रही है। वैदिक काल में गांव के मुखिया को ‘ग्रामणी’ कहते थे। ‘ग्रामणी’ का चुनाव ग्राम-परिषद द्वारा किया जाता था। गांव में शासन से जुड़े रोजमर्रा के निर्णय ग्राम सभा में लिए जाते थे। बौद्ध काल में ग्रामणी के स्थान पर गांव के शासक को ‘ग्राम-योजक’ की संज्ञा दी गई है।

ग्राम-योजक का चुनाव ग्रामवासियों द्वारा ही किया जाता था। ग्राम-योजक राज्यसभा में गांवों का प्रतिनिधित्व करते थे। मौर्य काल में ग्राम-योजकों को ‘ग्रामिक’ कहा जाने लगा। साधारण विवादों के लिए ग्रामसभा ‘न्याय-सभा’ का भी काम करती थी तथा इस काल में सभी गांव अपने आप में पूर्ण ‘स्वतंत्र गणराज्य’ जैसे थे।

जब गुप्त काल के प्रशासन का अन्वेषण करते हैं तो पाते हैं कि ग्राम स्वराज यहां भी फल फूल रहा था। गुप्त काल में गांव के मुखिया को ‘ग्रामिक, ‘ग्रामपति’, ‘ग्रामहत्तर’ आदि कहा जाता था। पंचायतों में अनुभवी और बुजुर्गों को वरीयता दी जाती थी। जमींदारी प्रथा और नगरों के विकास पर विशेष ध्यान देने के कारण मुगल काल से ही स्वशासन पतन की ओर अग्रसर होने लगा जो अंग्रेजों के आते-आते बदहाली में पहुंच गया।

ब्रिटिश काल में 1882 ईसवीं में आधुनिक स्वशासन के जनक लॉर्ड रिपन ने ‘स्थानीय स्वशासन’ प्रस्ताव को प्रस्तुत किया। इस प्रस्ताव को ही भारत में आधुनिक स्वशासन का प्रारंभ माना जाता है।

एक ब्रिटिश अधिकारी चार्ल्स टी. मेटकॉफ ने अपने अध्ययनों के आधार पर 1932 में भारतीय ग्रामों को लघु गणराज्य की संज्ञा दी थी। उनके मत के अनुसार स्वशासन के कारण ही भारतीय गांव सदैव बाहरी दबावों से मुक्त रहें और अनेक विदेशी आक्रमणों के बाद भी सदियों से भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण रही।

गांधी अपने विचारों में ग्राम-स्वराज्य की परिकल्पना करते थे। यह उनकी दूरदर्शिता या यूं कहें कि विचार ही था कि भारतीय स्वाधीनता के पश्चात उसके स्वराज्य की कल्पना जिसके केंद्र में गांव, ग्राम स्वराज्य था जिसका अर्थ उन्होंने गांव की आत्मनिर्भरता, गांव की स्वतंत्रता, स्वावलंबी एवं प्रबंधन-सत्ता के रूप में दिया था, को धरातल पर उतारने के लिए स्वतंत्रता पश्चात जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की गई।

जिसके बाद वर्ष 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन द्वारा भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम पंचायत और जिला परिषद पर शामिल है। पंचायती राज प्रणाली लगभग सभी राज्यों में चल रही है।

कहीं एक-स्तरीय, कहीं द्वि-स्तरीय तो कहीं त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली चल रही है। बिहार, आंध्र प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र आदि राज्यों में त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली चल रही है।

पंचायत स्तर पर स्वशासन लोकतांत्रिक व्यवस्था को वास्तव में आम आदमी के दरवाजे तक ले जाता है, जहां वे लोकतंत्र में भागीदारी के साथ-साथ प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।

इन स्थानीय स्वशासन के साथ मिलकर केंद्र और राज्य सरकारें समय-समय पर योजनाएं तो लाती हैं, परंतु पंचायती राज्य के क्रियान्वयन में चुनौतियों के कारण इन योजनाओं का लाभ उन ग्रामीणों तक नहीं पहुंच पाता जो वास्तव में जरूरतमंद हैं।

चुनौतियों का जिक्र करें तो इनमें-जनप्रतिनिधियों में जनसेवा की भावना की कमी, ग्रामीण लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी, तथ्यों का अभाव, अधिकारी और जन-प्रतिनिधियों के बीच अच्छे संबंधों की कमी, विकासात्मक योजनाओं के क्रियान्वयन में अनियमितता, लालफीताशाही का बढ़ता प्रभाव, जनसंवाद का अभाव, आर्थिक संसाधन का अभाव तथा भ्रष्टाचार आदि हैं। यह चुनौतियां ऐसी हैं, जिसके समाधान के लिए आम जनता और सरकार को मिलकर काम करना होगा।

ग्रामीणों को अपने हक के प्रति जागरूक होना होगा। ग्रामीणों के पास सही तथ्य और जानकारी पहुंचे, इसके लिए सरकार को अखबार के साथ-साथ सोशल मीडिया का भी प्रयोग करना चाहिए।

लालफीताशाही पर नकेल कसने की जरूरत है तथा भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कठोर दंड के अलावा अधिकारियों में नैतिक कर्तव्य बोध हो ऐसे प्रशिक्षण की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए। शासन एवं जनता को अपनी जिम्मेदारियों को सक्रियता से निभाने का प्रयास करना चाहिए अन्यथा गांधी का सुनहरा सपना बिखर जाएगा।


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