भारत भुखमरी और अमीरी के कन्ट्रास्ट के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है वहीं दूसरी तरफ देश के चुनिंदा अरबपति बेहिसाब दौलत बना रहे हैं। देश में भूख की व्यापकता हर साल नए आंकड़ों के साथ हमारे सामने आ जाती है, जिससे पता चलता है कि भारत में भूख की समस्या कितनी गंभीर है। इधर कोरोना महामारी की वजह से देश में असमानता की खाई और अधिक चौड़ी हो गई है। यह गरीबों के लिए आपदा और अमीरों के लिए आपदा में अवसर साबित हुई है। इसने पहले से ही हाशिये पर जी रहे देश की करोड़ों जनता को एक ऐसे गर्त में धकेल दिया है जहां से निकलने में दशकों लग सकते हैं। 2014 से 2021 के बीच ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति देखें तो वर्ष 2014 में भारत की रैंकिंग जहां 55वें स्थान पर थी, वहीं 2021 में 101वें स्थान पर हो गई है। 2014 की इंडेक्स में कुल 76 देशों को शामिल किया गया था जबकि 2021 की रैंकिंग में कुल 116 देशों को शामिल किया गया है। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इस दौरान पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे भारत के हमसाया मुल्कों ने अपनी रैंकिंग में काफी सुधार किया है।
इस मुल्क में एक तरफ तो भूख से बेहाल लोगों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या और दौलत भी बेलगाम तेजी से बढ़ती जा रही है। जनवरी 2021 में आक्सफैम द्वारा जारी की गई रिपोर्ट ‘द इनइक्वैलिटी वायरस’ बताती है कि किस तरह से भारत के लोगों पर महामारी के साथ आर्थिक असमानता के वायरस की मार पड़ी है।
रिपोर्ट के अनुसार कोविड लॉकडाउन के दौरान भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 35 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है वहीं दूसरी तरफ कोविड के चलते देश के 84 फीसदी परिवारों को आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा है। रिपोर्ट बताती है कि महामारी के दौरान मुकेश अंबानी को एक घंटे में जितनी आमदनी हुई, उतनी कमाई करने में एक अकुशल मजदूर को दस हजार साल लग जाएंगे।
यही नहीं भारत अरबपतियों की संपत्ति के मामले में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ्रांस के बाद छठे स्थान पर पहुंच गया है। देश में धनवानों को लेकर जारी की जाने वाली आईआईएफएल वेल्थ हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2021 के अनुसार पिछले एक दशक के दौरान भारत में अरबपतियों की संख्या में दस गुना की बढ़ोतरी हुयी है। 2001 में देश में केवल 100 अरबपति थे जबकि 2021 में इनकी संख्या 1,007 तक पहुंच गई है।
यह भी ऐसा अद्भुत संयोग है कि भारत सरकार जो भी नीति बना रही है, उसका सबसे अधिक फायदा चंद कारोबारियों को हो रहा है। जाहिर है भारत के शीर्ष कारोबारियों की इस तरक्की के साथ गहरी असमानता भी नत्थी है। उदारीकरण के बाद से ही भारत को उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति माना जाता रहा है।
इस दौरान भारत ने आर्थिक रूप से काफी तरक्की भी की है लेकिन जीडीपी के साथ आर्थिक असमानताएं भी बढ़ी हैं, जिसकी झलक हमें साल दर साल भूख और कुपोषण से जुड़े आकड़ों में देखने को मिलती है। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि हम अपने आर्थिक विकास का फायदा सामाजिक और मानव विकास को देने में नाकाम साबित हुये हैं।
भारत की यह असमानता केवल आर्थिक नहीं है, बल्कि कम आय के साथ देश की बड़ी आबादी स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसे मूलभूत जरूरतों की पहुंच के दायरे से भी बाहर है। साल 2020 के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में भारत को 189 देशों में 131वां स्थान प्राप्त हुआ है।
2019 में भारत दो पायदान उपर 129वें स्थान पर था। गौरतलब है कि यह रैंकिंग देशों के जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और आमदनी के सूचकांक के आधार पर तय की जाती है। जिस देश में असमानता अधिक होगी उस देश रैंकिंग नीचे होती है।
ऐसा नहीं है कि इस देश में भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए संसाधनों या सामर्थ की कमी है।
दरअसल इस देश की किसी भी सरकार ने अभी तक भूख और कुपोषण को जड़ से खत्म करने के लक्ष्य के बारे में सोचा तक नहीं है। हालांकि हमारे देश और समाज के लिए यह प्रमुख मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है।
साल 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सावर्जनिक रूप से स्वीकार किया था कि तेजी से प्रगति कर रहे भारत के लिए यह राष्ट्रीय शर्म की बात है कि उसके 42 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है, साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि कुपोषण जैसी बड़ी और बुनियादी समस्या से निपटने के लिए केवल एकीकृत बाल विकास योजनाओं (आईसीडीएस) पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।
इसके बाद यूपीए सरकार द्वारा वर्ष 2013 में राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून लाया गया। इस कानून की अहमियत इसलिए है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला कानून है जिसमें भोजन को एक अधिकार के रूप में माना गया है। यह कानून 2011 की जनगणना के आधार पर देश की 67 फीसदी आबादी (75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी) को कवर करता है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मुख्य रूप से चार हकदारियों की बात की गई है, जो योजनाओं के रूप में पहले से ही क्रियान्वयित हैं, लेकिन अब एनएफएसए के अंतर्गत आने से इन्हें कानूनी हक का दर्जा प्राप्त हो गया है। लेकिन 2014 में सरकार बदल जाने के बाद इसे लागू करने में पर्याप्त इच्छा-शक्ति और उत्साह नहीं दिखाया गया।
केंद्र और राज्य सरकारों के देश के अरबों लोगों के पोषण सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरत से जुड़े कानून को लेकर जो प्रतिबद्धता दिखायी जानी चाहिए थी, उसका अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है और उनके रवैये से लगता है कि वो इसे एक बोझ की तरह ढो रहे हैं।
भारत में भूख और कुपोषण की समस्या को देखते हुए खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 एक सीमित हल पेश करता ही है। हंगर इंडेक्स में भारत के साल दर साल लगातार पिछड़ते चले जाने के बाद आज पहली जरूरत है कि इसके लिए चलायी योजनाओं की समीक्षा की जाए और इनके बुनियादी कारणों की पहचान करते हुए इस दिशा में ठोस पहलकदमी हो, जिससे आर्थिक असमानता कम हो और सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़े।