महाभारत युद्ध में अर्जुन को सारथि के रूप में प्रभु श्री कृष्ण का साथ मिला, जिन्होंने पूरे युद्ध काल में अर्जुन को प्रोत्साहित किया, हे अर्जुन! तुम महापराक्रमी हो, तुम्हारे साथ सत्य की शक्ति है, तुम विजयी होंगे। दूसरी ओर कर्ण, जो अर्जुन से अधिक पराक्रमी और साहसी था, वह युद्ध काल में भी दुविधाग्रस्त ही रहा। कुंती ने उसे पुत्र स्वीकारा भी तो कब? जब वह अपने जीवन के सबसे भीषण और निर्णायक युद्ध महाभारत में कौरवों का सेनापति घोषित कर दिया गया।
साथ ही कुंती ने उससे युद्धभूमि अर्जुन के सिवाय और किसी भाई को न मारने की शपथ ले ली। अब उसे भाइयों और दुर्योधन में से किसी एक को चुनना था। उसने कर्तव्य पालन को सर्वोपरि मानते हुए दुर्योधन के पक्ष में युद्ध करने का निर्णय लिया। अब सारथी पुत्र कर्ण के सेनापति घोषित होने के बाद, उसका सारथी कौन बने? कोई भी प्रतिष्ठित राजा उसका सारथी नहीं बनना चाहता था।
दुर्योधन के दबाव में मद्र नरेश शल्य ने कर्ण का सारथी बनना स्वीकारा, जो नकुल तथा सहदेव के सगे मामा थे और वे कभी नहीं चाहते थे कि कर्ण की अर्जुन पर विजय प्राप्त हो। कर्ण का रथ चलाते हुए भी वह कर्ण से बार-बार यह कहते रहे कि तुम अर्जुन से हार जाओगे। इस बात को उन्होंने कर्ण से इतनी बार कहा कि कर्ण भी मानसिक तौर पर पराजय स्वीकार कर चुका था।
एक ओर अर्जुन के सारथी योगिराज कृष्ण, जो उसमें उत्साह, आत्मविश्वास और विजय के विचार भर रहे थे, तो दूसरी ओर कर्ण था, जिसके मन में शल्य हताशा तथा हार के विचार भर रहा था। अंत में कर्ण अर्जुन के बाणों से मृत्यु को प्राप्त हुआ और पराजित हुआ। इसी लिए आध्यात्मिक संत और गुरु सदैव शुभ विचारों के मनन करने की शिक्षा देते है। क्योंकि शुभ विचार मन पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा