Monday, May 5, 2025
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गणेशोत्सव की तैयारियां शुरू, मिट्टी की कमी से जूझ रहे कारीगर

  • बड़ी संख्या में होता है गणेश और दुर्गा प्रतिमाओं का निर्माण
  • काली मिट्टी के अभाव में प्लास्टर आॅफ पेरिस और अन्य चीजों से बन रही मूर्तियां

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: गणेशोत्सव व नौ दुर्गा के पर्व के अवसर पर श्रद्धा का सैलाब उमड़ता हैं। बड़ी संख्या में शिवपुत्र गणेश व दुर्गा माता के भक्त प्रतिमाओं को खरीदते हैं और अपने घरों व पंडालों में पूजा-अर्चना करते हैं। इस दौरान दोनों की प्रतिमाओं की मांग भी बढ़ जाती हैं। वहीं मेरठ में भी इन प्रतिमाओं के कारीगर मूर्तियों का निर्माण करते हैं।

जिनकी मांग आसपास के जिलों समेत दूसरे राज्यों में भी होती हैं, लेकिन इन प्रतिमाओं को बनाने वाले कारीगरों के सामने प्रतिमाओं का निर्माण करने के लिए जरूरी मिट्टी की कमी हैं। इस वजह से यह प्लास्टर आॅफ पेरिस व अन्य पदार्थों से मूर्तियों का निर्माण कर रहे हैं। जिन्हें हम इको फै्रंडली नहीं कह सकते।

दो सालों के बाद इस बार फिर से सभी तरह के आयोजन शुरू हो गए हैं। इनमें प्रमुख रूप से मनाए जानें वाले गणेशोत्सव व नौ दुर्गा के दौरान होनें वाले आयोजन शामिल हैं। इन आयोजनों के लिए भगवान गणेश व दुर्गा मां की प्रतिमाओं का पूजन होता है जिसके लिए बड़ी संख्या में प्रतिमाओं की जरूरत होती हैं।

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मेरठ में भी बड़ी संख्या में प्रतिमाओं का निर्माण हो रहा हैं जिनकी डिमांड यूपी के सहारनपुर, बागपत, बिजनौर, हापुड़, गाजियाबाद, मुजफ्फरनगर, शामली समेत उत्तराखंड, हरियाणा व दिल्ली के जिलों में भी हैं। कारीगरों का कहना है कि उनको मिलनें वाले प्रतिमाओं के आर्डर गणेशोत्सव से पहले से शुरू हो जाते है और यह दुर्गा पूजा तक जारी रहते हैं। मुर्तियों को बनाने के लिए धान की बाली, पुराल, लकड़ी व काली मिट्टी का प्रयोग होता हैं।

काली मिट्टी की भारी कमी

कारीगर मनोज प्रजापति ने बताया कि प्रतिमाओं के निर्माण के लिए जरूरी काली मिट्टी की भारी किल्लत हैं। सरकार व प्रशासन द्वारा ऐसे कोई इंतजाम नहीं हैं कि उन्हें प्रतिमाओं को बनानें के लिए जरूरी काली मिट्टी मिल जाए। इसी वजह से वह प्रतिमाओं को बनानें के लिए प्लास्टर आॅफ पेरेस का प्रयोग करते हैं। प्लास्टर आॅफ पेरेस एक तरह का ऐसा पदार्थ है जो पानी में मुर्ती विसर्जन के लिए ठीक नहीं हैं।

जिस नहर या कुएं व तालाबों में मुर्ती का विसर्जन किया जाता हैं यह पदार्थ उसको दूषित करता हैं। ईकों फ्रैंडली मुर्तियां तैयार करनें के लिए काली मिट्टी की जरूरत होती हैं लेकिन यह मिट्टी उन्हें नहीं मिल रही है। इस वजह से वह दूसरे पदार्थो का प्रयोग करतें हैं। माटी कला विभाग के अधिकारियों से कई बार मिट्टी की मांग के लिए मिलने की कोशिश की गई लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती हैं।

कलकत्ता से आती हैं ईकों फै्रंडली प्रतिमाएं

कारीगरों का कहना है कि उनकी कोशिश रहती हैं कि ईकों फ्रैंडली प्रतिमाओं को वह अपने हाथों से तैयार करें लेकिन मिट्टी नहीं मिलनें के कारण वह इन मुर्तियों को कलकत्ता से मंगवाते हैं। वहां से गंगा की मिट्टी से बनी मुर्तियां आती है जो ईकों फ्रैंडली होती हैं लेकिन इनकी कीमत ज्यादा होती हैं।

सबसे छोटी मुर्ती की कीमत पचास रूपये जबकि पांच फिट तक की उंचाई वाली मुर्ति की कीमत 25 हजार रूपये तक हैं। इस समय इन मुर्तियों की ज्यादा मांग हैं। कारीगरों द्वारा किसी भी तरह के कैमिकल रंगों का प्रयोग नहीं किया जाता हैं केवल वाटर कलर ही इस्तेमाल होते हैं जो पानी में आसानी से घुल जातें हैं।

कुल मिलाकर स्थानीय कारीगरों द्वारा मूर्तियों का निर्माण किया तो जा रहा हैं लेकिन यह ईकों फै्रंडली नहीं है। इसकी वजह कारीगरों को काली मिट्टी उपलब्ध नहीं होना हैं। स्थानीय प्रशासन की उदासीनता के चलते कारीगर दूसरे पदार्थो से मुर्तियों का निर्माण कर रहें हैं।

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