पिछले दिनों प्रमुख आईटी कंपनी इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति के द्वारा युवाओं को काम के घंटे बढ़ाने को लेकर दिए गए बयान से देश में एक बहस छिड़ी है। एक वीडियो सीरीज को दिए गए साक्षात्कार के दौरान नारायणमूर्ति ने कहा है कि अगर भारत विकसित देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता है तो युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। उनका कहना था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वहां की सरकार और उद्योग जगत ने जर्मनी और जापान को फिर से खड़ा किया। हर जर्मन नागरिक ने वहां कई वर्षों तक ज्यादा घंटे काम किया। उन्होंने यह सलाह भी दी कि भारत में हमारे नेता व कॉरपोरेट जगत भी ऐसा ही करवाएं। नारायणमूर्ति के बयान को लेकर इस बहस में देश के अन्य लोगों के साथ में प्रसिद्ध चिकित्सक भी शामिल हो गए हैं। बेंगलुरु के प्रसिद्ध चिकित्सक दीपक कृष्णमूर्ति का साफ कहना है कि आप अगर सप्ताह में छह दिन प्रतिदिन 12 घंटे काम करते हैं तो आपके पास शेष सभी कार्यों के लिए केवल 12 घंटे बचते हैं। इसमें 7-8 घंटों का सोना भी जरुरी है। बाकी बचे 4 घंटों में दो घंटे बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद व मुंबई जैसे शहरों में कार्यस्थल पहुंचने में निकलते हैं। कार्य की अधिकता और निजी काम के घंटों में कमी होने के कारण परिवार से बातचीत, बच्चों से संवाद, व्यायाम और मनोरंजन का समय इसी काम की भेंट चढ़ रहा है। यही बजह है कि आज युवाओं में तनाव, चिंता, पीठ दर्द और दिल का दौरा पड़ने जैसी घटनाएं रोजाना सामने आ रहीं है।
मैक्स हेल्थकेअर के डाक्टर अंबरीश ने अपनी एक्स पोस्ट पर लिखा कि युवाओं के लिए 70 घंटे का कार्यसप्ताह सिफारिश के तौर पर लागू नहीं किया जा सकता। युवाओं के लिए अपेक्षित अथवा अनिवार्य कार्य के घंटे प्रति सप्ताह 48 घंटों से अधिक नहीं होने चाहिए। बाल रोग विशेषज्ञ मनिनी का मानना है कि लंबे समय तक काम करने की संस्कृति बच्चों में आॅटिज्म को बढ़ा रही है। वह इसलिए क्योंकि माता-पिता के कार्य के घंटे अधिक होने के कारण वे बच्चों के साथ वे स्वस्थ संवाद नहीं बना पा रहे हैं। दूसरे परिवारों के एकल हो जाने से परिवार और बच्चों के बीच संवाद की संस्कृति भी लुप्त होने के कगार पर है।
इस संदर्भ में डब्ल्यूएचओ ने साफ कहा है कि प्रति सप्ताह 35-40 घंटे काम करने की तुलना में 55 घंटों से अधिक काम करने से ब्रेन स्ट्रोक का खतरा 35 प्रतिशत और हृदयाघात का जोखिम 17 प्रतिशत अधिक होता है। 2021 में एनवायरमेंन्ट इंटरनेशनल में प्रकाशित शोध से जुड़े तथ्य बताते हैं कि लंबे समय तक काम करने के कारण 2016 में स्ट्रोक और इस्केमिक हृदय रोग से 7 लाख 45 हजार मौतें हुर्इं थीं। काम से जुड़े घंटों को लेकर जो अध्ययन हो रहे हैं, उनसे साफ पता चलता है कि लोगों पर काम का बोझ केवल वयस्कों पर ही नहीं, बल्कि यह युवाओं को भी तनावग्रस्त बना रहा है। आज युवा काम की अधिकता के कारण काम और घर को अलग नहीं कर पा रहे हैं। इससे जुड़ा अध्ययन बताता है कि 41 फीसदी से ज्यादा भारतीय युवा घर और दफतर की जिम्मेदारियों के बीच बर्नआऊट अर्थात काम के तनाव के शिकार हैं।
युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करने का सुझाव देते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यूरोप में जब मशीनी युग शुरू हुआ तो बड़े-बड़े जमीदारों ने मुनाफे को ध्यान में रखते हुए खेती के स्थान पर उद्योग लगा लिए। खेतीहर मजदूर भी कारखाने में मजदूरी करके नगद मुनाफा कमाने लगे। ज्यादा से ज्यादा जमींदार उद्योगपति बन गए और उनमें काम, मुनाफा और उत्पादन करने की भयंकर होड़ शुरू हो गई। मजदूरों पर काम का दबाब बढ़ा तो उद्योग मालिकों ने उनके लिए फैक्ट्री में ही घर बनवा दिए। उसी घर में उनको सभी सुविधाएं उपलब्ध करा दीं। इससे मजदूरों के काम के घंटे बढ़ गए। उत्पादन करने की इतनी होड़ बढ़ी कि अब इन्हीं मकानों के कमरों में मजदूरों की बहुत संख्या बढ़ गई और सुविधाएं कम होती चली गर्इं। सप्ताह का इनका अवकाश भी समाप्त कर दिया गया। धीरे-धीरे उनके काम के घंटे आठ से बारह हो गए। घर की महिलाएं भी काम करने लगीं। जीवन स्तर सुधरने की बजाय खराब होता गया। अधिकार सभी खत्म होते गए। वे मजदूर काम करते-करते कब मशीन बन गए, पता ही नहीं लगा। फैक्ट्री मालिक देशभक्ति की बुनियाद पर फ्रांस और इग्लैंड को मेहनत के साथ आगे ले जाने की बात करते रहे। परंतु मजदूर आखिर तक जान ही नहीं पाए कि आगे कौन जा रहा है।
निश्चित ही नारायणमूर्ति का बयान ऐसे समय में आया है जब विश्वभर में कर्मचारियों पर से काम का बोझ घटाने और उन्हें अपने परिवारजनों के साथ समय बिताने के लिए अधिक प्रेरित किया जा रहा है। आधुनिक कार्य संस्कृति और श्रेष्ठ प्रबंधन से जुड़े शोध बताते हैं कि संतुष्ट कर्मचारी अधिक उत्पादन करता है। तभी पूरी दुनिया में कर्मचारियों के आज काम के घंटे घटाते हुए अधिक सुविधाएं प्रदान करने की मुहिम चल रही है। तीसरी दुनिया के तानाशाही शासन प्रणाली वाले देशों को छोड़ दिया जाए तो आज दुनियाभर के लोगों में इतना अधिक काम लेने की परम्परा नहीं है। डेनमार्क, आस्ट्रिया, नार्वे व फिनलैंड जैसे देशों में अधिकतम 31 घंटे काम लिया जाता है और इन देशों की गिनती अधिक उत्पादकता वाले देशों में होती है। वहां सप्ताह में पांच दिन कार्य करने की परम्परा है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाड़ा तथा यूरोपीय देशों में अधिकतम 41 घंटे काम करने का चलन है। इन देशों में भी उत्पादकता की दर बहुत ऊंची है। इसके विपरीत भारत सहित तृतीय विश्व कहलाने वाले एशियाई, अफ्रीकी, लॉटिन अमेरिकी जैसे देशों में अभी भी कम सुविधाएं देकर अधिक काम लेते हैं, परंतु उनके वेतनमान विकसित देशों की तुलना में बहुत कम हैं। असंगठित क्षेत्र की खराब हालत से तो आप सभी पूर्व में परिचित ही हैं।
फोर्टिस मेमोरियल इंस्टीट्यूट से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि अपनी जरूरतों को समझना सभी के लिए जरूरी है। अपने शौक व इच्छाओं को लगातार नकारकर काम करते रहना कार्यस्थल पर आपके प्रदर्शन को प्रभावित कर सकता है। यह स्थिति आपको बर्नआऊट की स्थिति में पहुंचा सकती है। इसका परिणाम तनाव, चिड़चिड़ाहट, बात-बात पर गुस्सा, झल्लाना व अकेलेपन जैसी शारीरिक व्याधियों के रूप में सामने आने की पूरी संभावनाएं हंै। ऐसे में परिवार के रिश्ते तो प्रभावित होगें ही, अपनी कार्य की उत्पादकता भी लगातार घटती जाएगी।
अनुभव बताते हैं कि नारायणमूर्ति के युवाओं के कार्य के 70 घंटे कार्य करने वाला बयान युवाओं के कार्य के परिणाम का रुझान सकारात्मक कम, नकारात्मक अधिक प्रतीत होता है। तथ्य बताते हैं कि आज भारतीय युवा अधिक काम करने के विरोध में नहीं हैं। इसलिए नारायणमूर्ति जी को भारत की श्रम प्रकृति, परिवार की ताकत और वैश्विक आधार पर विकसित हो रहे काम के मानकों को घ्यान में रखते हुए अपने बयान पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।