कोलकाता के आरजी कर मेड़िकल कॉलेज की महिला डॉक्टर की अस्पताल में दुष्कर्म के बाद हत्या पर राष्ट्रपति की पीड़ा ध्यान देने योग्य है। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों पर इस तरह के अत्याचार की अनुमति नहीं देता। देश के साथ-साथ उन्हंोंने भी आक्रोशित होते हुए कहा कि जिस समय छात्र,डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में प्रदर्शन कर रहे थे, ऐसे समय में भी ऐसे अपराधी अन्यत्र शिकार की तलाश में घात लगाये हुए थे। उन्होंने दिसम्बर 2012 में दिल्ली में निर्भया के साथ हुए दुष्कर्म और हत्या की चर्चा करते हुए कहा कि कुछ बच्चों ने मुझसे बड़ी मासूमियत से इस घटना के बारे में पूछा, मगर क्या उन्हें ऐसी घटना आगे घटित न होने का भरोसा दिया जा सकता है।
एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स यानी एडीआर की ओर से जारी हालिया रिपोर्ट में 16 वर्तमान सांसदों और 135 विधायकों पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध में मुकदमें दर्ज हैं। केवल इतना ही नहीं, बल्कि दो सांसदों और 14 विधायकों पर दुष्कर्म के मामले चल रहे हैं। खास बात यह है कि बंगाल के सबसे अधिक जनप्रतिनिधि ऐसे मामलों का सामना कर रहे हैं। उधर हेमा रिपोर्ट के बाद केरल के फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों के शोषण का मामला आजकल चरम पर है। बदलापुर, महाराष्ट्र में अबोध बच्चियों का त्रासद प्रकरण, असम में 14 साल की बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म जैसी घटनाएं तो हमारी आंखों के सामने ही हैं। इनके अलावा प्रतिदिन समाचार पत्रों में यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म जैसी घटनाओं को प्रचुर मात्रा में पढ़ा और समझा जा सकता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट भी बताती है कि यहां 16 मिनट में एक यौन दुष्कर्म घटना होती है। साथ ही प्रत्येक घंटे महिलाओं के विरुद्ध 50 अपराध घटित होते हैं। इनमें 10 फीसदी से भी अधिक यौन दुष्कर्म की घटनाए 18 साल से कम उम्र के नाबालिगों के साथ घटित होती हैं। आज देश व प्रदेशों के मुख्तलिफ हिस्सों में मासूम लड़कियों व महिलाओं के साथ घटने वाली यौन उत्पीड़न की वारदातों ने देश व समाज को झकझोर कर रख दिया है। लगता है निर्भया यौन उत्पीड़न की घटना के बाद समाज की सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। इसी कारण देश में यौन हिंसा की लगातार बढ़ती घटनाओं को लेकर तरह-तरह की प्रतिक्रियाए भी सामने आ रहीं हैं। दुष्कर्म जैसी घिनौनी वारदातों से न केवल देश में, बल्कि विदेशों तक में अपनी किरकिरी हो रही है।
यौन उत्पीड़न की अधिकांश घटनाएं आज कानूनविदों व समाजशास्त्रियों को नए सिरे से सोचने को मजबूर कर रहीं हैं। इस संदर्भ से जुड़े कुछ और आंकड़े खुलासा करते हैं कि भारत में यौन उत्पीड़न के मामले में लगभग 93 फीसदी दोषी पीड़िता के ही परिचित होते हैं। इन आंकड़ों की तकलीफदेह तस्वीर यह है कि 31 फीसदी यौन हिंसा व छेड़खानी में पीड़ित लड़कियों की उम्र 14 साल से भी कम रही। दरअसल मामला चाहे महिला छेड़छाड़ का हो अथवा यौन हिंसा का, इन सभी घटनाओं को अब किसी एक सामाजिक पैमाने से नहीं मापा जा सकता। आज इसके गहन अध्ययन के लिए एक बहुआयामी वस्तुनिष्ठ उपागम की जरूरत महसूस की जा रही है। लेकिन फिर भी लगातार बढ़ती यौन हिंसाओं की इन घटनाओं पर कम से कम एक हालिया समाज-मनोवैज्ञानिक दृष्टिपात जरूरी हो जाता है।
इसमें कोई शक नहीं कि सूचना तकनीक ने आज की दुनिया में एक खलबली मचा दी है। गांवों से लेकर महानगरों तक मोबाइल व इंटरनेट ने बच्चों, युवाओं व महिलाओं के बीच अपना पूरा दखल बना लिया है। असल स्थिति यह है कि आप सड़क के किनारे तक से दस-बीस रुपयों का इंटरनेट सिम खरीदकर पूरी दुनिया की सैर कर सकते हैं। पोर्न साहित्य तक भी इन्हीं सिम में कैद है। संयुक्त परिवार के टूटने और छोटे परिवारों में मां-बाप और बच्चों के बीच बढ़ती दूरी व संवादहीनता ने टीनेजर्स के बीच सोशल मीडिया के रूप में संवाद का एक नया नेटीजन पीयर ग्रुप पैदा कर दिया है। ध्यान रहे यह नेटीजन समूह ही उनके हर तरीके के सुख-दुख में पूरी तरह हमसाज है। मां-बाप को इस सचाई को समझने की फुर्सत ही नहीं है कि पोर्न उनके बच्चों के बेडरूम तक पहुंच गया है। उल्टे वे इस सच्चाई से दूर भाग रहे हैं।
सच तो यह है कि पोर्न का प्रभाव ही यौन सबंधों के ढांचे को नई यौन प्रयोगशाला में रूपान्तरित कर रहा है। बढ़ते यौन आवेग के पीछे कहीं न कहीं इस मुद्दे को भी समाहित करना समीचीन होगा। दूसरी ओर इस संदर्भ में यह भी देखने में आ रहा है कि आज सबसे अधिक हिंसा उन लड़के-लड़कियों पर हो रही है जो या तो वे घर से बाहर रह रहे हैं अथवा वे समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हंै। 16 दिसम्बर को दिल्ली में हुए निर्भया कांड के पश्चात बलात्कार के दोषियोंं के प्रति कानून की सख्ती हुई है, मगर इसके बाद भी बालिग के साथ कहीं-कहीं नाबालिग भी अपराधी तक अब दुष्कर्म के बाद पीड़िता की हत्या करके सबूत मिटाने पर आमादा हैं। साथ ही साथ सबसे दुखद तो यह है कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में राजनीति और कानून से जुड़े पुरोधाओं के गैरजिम्मेदाराना बयानों ने भी इन व्यभिचारियों के हौसले बुलंद किए हुए हैं।
कड़वा सच यह है कि यौन दुष्कृत्यों से जुड़ी इन सभी घटनाओं के पीछे छिपा वह सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण भी है जिसे हमने अपनी खुली बाजारू अर्थव्यवस्था तथा जाति व धर्म पर आधारित सामाजिक वैमनस्य और दबंगई राजनीति से तैयार किया है। विचारहीन व्यवहार से जुड़ी इस संक्रमित संस्कृति में आज सामाजिक संवेदना, दूसरे के प्रति सम्मान, करुणा व सहानुभूति जैसे मूल्यों के साथ में बहन व बेटी जैसे रिश्तों के सम्मान की कोई जगह बची नहीं है। आज इस बाजारू संस्कृति की आग में मनुष्य का मनुष्यत्व, आदमी की आदमीयत और पुरुष के पुरुषार्थ झुलस रहे हैं। ऐसे में विषैली मानसिकता का प्रस्फुटन होना स्वभाविक ही है। इसलिए हमें समय रहते उन सामाजिक व मनोवैज्ञानिक दशाओं का विश्लेषण भी करना चाहिए जो लोगों को दुष्कर्मी बनाती हैं। साथ ही स्त्री व पुरुष देह से जुड़ी उन सामाजिक मान्यताओं और पुलिस कानून की कमजोर व्यवस्थाओं का भी मूल्यांकन करना पड़ेगा जो आज खुद दुष्कर्मी की रक्षक बनकर न्याय का गला घोंट रही हैं। यदि असलियत में हमें यह चिन्ता है कि किसी भी महिला अथवा पुरूष पर बलात हिंसा व यौन आक्रमण न हो तो हमें शाब्दिक वाचालता, चपलता व यौन हिंसा की घटनाओं से जुड़ी त्वरित टिप्पणी के खोल से बाहर आकर दुष्कर्म से जुड़े उन मूल सवालों से टकराना पड़ेगा, जो इस प्रकार की घटनाओं से उभर रहे हैं।
दुष्कर्म चाहे कोलकाता में हों या देश के अलग-अलग हिस्सों में, वे केवल कानून की विफलता के कारण ही नहीं हैं। हम इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि आज के लगातार हिंसक हो रहे समाज में कानून की सख्ती के बिना जंगल राज होने की पूरी संभावनाएं हैं। परन्तु दूसरी ओर यह भी सच है कि कानून व्यवस्था हम चाहे कितनी भी दुरुस्त क्यों न कर लें, अगर उसे सभ्य समाज की संवेदनशील सामाजिक मूल्यों की संस्कृति का सहयोग व समर्थन नहीं मिलता तो ऐसे में न तो सामान्य अपराधों पर और न ही बढ़ती यौन हिंसा पर रोक लगायी जा सकती है।