राजा दुर्गादत्त के जब काफी दिनों तक संतान नहीं हुई, तो उन्होंने रानी के परामर्श से शिवानंद नामक एक नवजात बच्चे को गोद ले लिया। पर अगले ही वर्ष रानी ने एक सुंदर बेटे को भी जन्म दिया। रानी का सारा ध्यान अब उसकी अपनी कोख से जन्मे बेटे चंद्रदत्त पर रहने लगा।
इसके विपरीत राजा का स्नेह दोनों बच्चों के प्रति बराबर बना रहा। जब राजा-रानी के वृद्धाश्रम जाने का समय निकट आया तो राजा ने बड़े बेटे शिवानंद को राजपाट सौंपने का फैसला किया, मगर रानी यह नहीं चाहती थीं कि उनके अपने बेटे के होते हुए दत्तक पुत्र को राजा बना दिया जाए।
उन्होंने चंद्रदत्त को राजा बनाने की गुहार लगाई। राजा अपने व सौतेले के भेद में नहीं पड़ना चाहते थे। इसलिए एक दिन रानी और प्रजा की उपस्थिति में उन्होंने नए राजा के चुनाव के लिए अपनी बात रखी। उन्होंने दोनों राजकुमारों को छह-छह महीने का समय देकर सिंहासन पर बैठने की योग्यता सिद्ध करने को कहा।
राजा का बड़ा बेटा एक ऋषि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने चला गया और छोटा मां के पास ही रह कर राजा बनने की युक्तियां सीखने लगा। छह महीने बाद परीक्षा की घड़ी आई। शस्त्र चलाने में दोनों ने एक जैसी क्षमता दिखाई। इस तरह मुकाबला बराबरी पर छूटा।
राजा ने निर्णायक परीक्षा लेने का फैसला किया। दोनों को एक-एक बीमार व्यक्ति के साथ रहने और उनके उपचार करने का निर्देश दिया गया। चंद्रदत्त ने तुरंत राजवैद्य को उसका उपचार करने को कहा और कुछ सेवकों को उसके साथ रहने का आदेश देकर चला गया।
शिवानंद ने भी राजवैद्य से औषधि की व्यवस्था करने को कहा, लेकिन वह स्वयं कहीं नहीं गया, बल्कि उसकी सेवा में तब तक जुटा रहा, जब तक रोगी ठीक नहीं हो गया। सारे लोगों ने एक स्वर से उसे ही राजा बनाने को कहा।