कॉलरिज महान चिंतक थे। उनके जीवन में अध्यात्म का महत्वपूर्ण स्थान था। वह मानते थे कि बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चों के चरित्र को गढ़ने पर शुरू से ही ध्यान दिया जाना चाहिए। बच्चों का व्यक्तित्व विकसित करने के लिए बहुत-सी चीजें उन्हें सिखानी होंगी। उन्हें समुचित धार्मिक शिक्षा देनी होगी। उनकी इस पर कई लोग सहमत नहीं थे। उनके एक एक मित्र इस बारे में अलग राय रखते थे। बहुत दिनों बाद दोनों दोस्तों की मुलाकात हुई है। इसी दौरान उनके बीच इसी मुद्दे पर बहस छिड़ गई कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए या नहीं? मित्र ने कहा, ‘आप बालकों के धार्मिक शिक्षण पर बहुत जोर देते हैं। यह आपकी राय होगी, लेकिन मैं आपकी इस राय से सहमत नहीं हूं। बालकों को मुक्त रूप से प्रकृति से ही शिक्षा लेनी चाहिए।’ कॉलरिज ने पूछा, क्यों भाई? ऐसा क्यों होना चाहिए?’ इस पर मित्र ने कहा, ‘बच्चों की अपरिपक्व बुद्धि पर कोई भी शिक्षा हम लाद रहे होते हैं। ऐसा करने का हमें क्या अधिकार है? उन्हें खुद ही विकसित होने देने के मौके उपलब्ध कराने होंगे।’ यह सुनकर कॉलरिज बोले, ‘यार, मौसम सुहाना है। चलो, बगीचे में टहलकर आएं। वहीं इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा करेंगे।’ वे दोनों टहलते हुए बगीचे में आए। वहां झाड़-झंखाड़ उगे हुए थे। इसे देखकर कॉलरिज के मित्र बहुत परेशान हुए। उन्होंने कहा, ‘यह तो बड़ी अजीब जगह है। यहां तो सब कुछ बेतरतीब ढंग से उगा हुआ है। इधर से उधर जाना भी कठिन है। सब कुछ बेढंगा है।’ इस पर कॉलरिज ने हंसकर कहा, ‘मैंने इन्हें स्वतंत्र रूप से बढ़ने के लिए छोड़ रखा है। मैं इन पर अपनी इच्छा नहीं थोपता। तुम्हारा भी तो यही कहना है।’ मित्र कॉलरिज का आशय समझ गए। वह भी कॉलरिज की इस बात से सहमत हो गए कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए।