Wednesday, July 3, 2024
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अतिवाद के प्रतिनिधि संसद में!

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pushp ranjanनिर्वाचित हैं, मगर जेल में बंद हैं। क्या ये संसदीय चुनाव जीतने के बाद शपथ ले सकते हैं? यह मुद्दा तब सामने आया है, जब दो ऐसे विजयी उम्मीदवारों को शपथ दिलाने की जरूरत है। असम के ड्रिबूगढ़ जेल में सलाखों के पीछे हैं, ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह और दिल्ली के तिहाड़ जेल में टेरर फंडिंग के अभियुक्त शेख अब्दुल राशिद, जिन्हें इंजिनियर राशिद भी कहते हैं। आतंकवाद के आरोपों से घिरा एक तीसरा शख़्स है, सरबजीत सिंह खालसा। बेअंत सिंह का बेटा, वही जिसने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर गोलियां बरसार्इं थीं। ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह ने असम के जेल में कैद के कुछ सप्ताह पहले देश के गृह मंत्री अमित शाह को चेतावनी दी थी कि उनका अंजाम भी इंदिरा गांधी जैसा हो सकता है। सोचिए, अब यही शख़्स लोकसभा में कैसा सीन क्रियेट करेगा? मुश्किल यह है कि संविधान का अनुच्छेद-99 संसद सदस्य के रूप में शपथ का अधिकार इन्हें दे रहा है। भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ सत्यपाल जैन कहते हैं, ‘संसद के लिए चुने गए ऐसे किसी भी व्यक्ति, जो जेल में बंद हो, उसे अदालत की अनुमति लेनी होगी। इन्हें सदन के पटल पर या सदन में शपथ दिलाई जा सकती है, जो कि अध्यक्ष या प्रोटेम स्पीकर के विवेक पर निर्भर करता है। शपथ पूरा होने के बाद, इन माननीयों को जेल वापस लौटना होगा।’

लेकिन क्या अयोग्य घोषित करने की कोई समय सीमा भी निर्धारित है? इस सवाल पर भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल और बीजेपी कार्यकारिणी के सदस्य सत्यपाल जैन का कहना है कि संविधान में प्रावधान है कि यदि कोई सदस्य 60 दिनों तक सत्र में भाग नहीं लेता है, तो विजयी सीट को रिक्त घोषित किया जा सकता है। अर्थात संविधान में ऐसे-ऐसे प्रावधान है कि जीती हुई बाजी हार में बदल सकती है, यदि सिस्टम की नीयत बेईमान हो जाए।

अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा दोनों की जीत ने पंजाब में 1989 के लोकसभा चुनावों की यादें ताजा कर दी हैं, जब सिमरनजीत सिंह मान के नेतृत्व वाली शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) ने पंजाब की 13 संसदीय सीटों में से छह पर जीत हासिल की थी। अंतर सिर्फ़ इतना है कि उस कालखंड में पंजाब में उग्रवाद और अलगाववाद चरम पर था। पैंतीस साल बाद, अमृतपाल और सरबजीत की जीत ने पंथक राजनीति को फिर से स्थापित किया है, जब पंजाब उग्रवाद से ग्रस्त नहीं है। तो सवाल रहेगा, कि क्या पंजाब में उग्रवाद की वापसी होगी?

पंजाब में लोकसभा चुनाव के दौरान माझा, मालवा, दोआबा की रिपोर्टिंग करते समय मैंने खुद महसूस किया था कि दशकों से चले आ रहे अनसुलझे मुद्दे जमीन में सूखे नहीं। ऐसे मुद्दे, जिन्होंने सिख समुदाय के एक वर्ग को कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी जैसे पारंपरिक राजनीतिक दलों के प्रति अविश्वास पैदा कर दिया है। असम की जेल में बंद अमृतपाल को खडूर साहिब सीट 1.9 लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीतना मायने रखता है। बेअंत के बेटे सरबजीत ने फरीदकोट के आरक्षित लोकसभा क्षेत्र से 70,000 से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की, तो इसका संदेश यह भी जाता है कि सिखों में जो दलित हैं, उन्हें अलगाववाद का अमृत चखाना आसान है।

चंडीगढ़ के पास मोहाली जिले से संबंध रखने वाले सरबजीत 2004 से चुनाव लड़ रहे हैं, और एक राजनीतिक परिवार से आते हैं। उनकी मां बिमल कौर खालसा ने 1989 में रोपड़ संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था, जब शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के नेता सिमरनजीत सिंह मान ने तरनतारन लोकसभा सीट से जीत हासिल की थी। सरबजीत के दादा सुच्चा सिंह ने भी 1989 में शिअद (अमृतसर) के टिकट पर बठिंडा संसदीय सीट से फतह की थी। फरीदकोट में मैंने स्वयं देखा कि लोकसभा चुनाव के बचे अंतिम सप्ताह में सरबजीत के समर्थन में युवाओं के अभियान ने कैसे जोर पकड़ लिया था। यहां यह बताना अनुचित नहीं होगा कि अमृतपाल और सरबजीत की जीत के पीछे पंजाब की अनसुलझी समस्याओं का प्रेत खड़ा था। उनमें कृषि संकट, एसवाईएल नहर विवाद, चंडीगढ़ को पंजाब में स्थानांतरित करना, आतंकवाद के दौरान युवाओं की न्यायेत्तर हत्याओं (एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग्स) में न्याय न मिलना, युवाओं पर यूएपीए और एनएसए लगाने जैसे सवाल पिंड से लेकर गलियों-चैबारों में उठते थे।

इन सभी मुद्दों पर चुप्पी ने सामूहिक रूप से राजनीतिक शून्यता पैदा कर दी। नतीजा यह निकला कि युवाओं को पोलराइज करने में रूढ़िवादी सफल रहे। सिख मतदाताओं के एक वर्ग ने पारंपरिक राजनीति पर अविश्वास किया, और पंथ के दो निर्दलीय उम्मीदवारों को बड़ी जीत मिली। हरसिमरत कौर बादल बटिंडा से चौथी बार जीतती हैं, तो इसे परिवारवाद नहीं, पंथिक राजनीति का हिस्सा ही माना जाना चाहिए।

पंजाब घूमते समय पहले लगा था कि बादल परिवार के नियंत्रण वाले शिरोमणि अकाली दल (शिअद) का पतन सुनिश्चित है। मगर जरूरी नहीं कि जो महसूस हो, वही दीखे. शिरोमणि अकाली दल की शिखर सदस्य हरसिमरत पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हैं। किसानों के सवाल पर मंत्री पद से इस्तीफा देते समय हरसिमरत के पीछे पंथिक राजनीति की ताकतें खड़ी थीं।

बात जब संसद की हो रही हो तो आतंकी वित्तपोषण के अभियुक्त शेख अब्दुल राशिद, जिन्हें इंजीनियर राशीद के नाम से जाना जाता है, की चर्चा होनी चाहिए। इंजीनियर राशिद 9 अगस्त, 2019 से तिहाड़ जेल में बंद हैं। इंजीनियर राशीद का चेहरा टीवी बहस में सुपरिचित रहा है। जेल में रहते हुए बारामूला से जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को दो लाख मतों से हराना मायने रखता है। क्या इसका असर कश्मीर के विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा? इस सवाल को यहीं छोड़े जाते हैं। लेकिन यह कोई दावा करे कि आतंकवाद-अलगाववाद को हमने जड़ से मिटा दिया, तो समझिए कि शुतुरमुर्ग की तरह उसने अपना सिर रेत में घुसा लिया है।

लोकसभा चुनाव परिणाम ऐसे समय आया है, जब आॅपरेशन ब्लू स्टार की चालीसवीं बरसी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से लेकर कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्रिटेन के सिख बहुल इलाकों में मनाई जा रही थी। स्वर्ण मंदिर में 6 जून 2024 को जो कुछ हुआ, क्या उससे देश की सुरक्षा एजेंसियां और स्वयं केंद्र सरकार नावाकिफ थी? पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, ‘शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) सहित विभिन्न संगठनों के कार्यकतार्ओं ने स्वर्ण मंदिर में नारे लगाए। सिखों की सर्वोच्च सीट अकाल तख्त पर पूर्व सांसद ध्यान सिंह मंड और हाल ही में संगरूर लोकसभा सीट से हारे सिमरनजीत सिंह मान भी वहां मौजूद थे। प्रदर्शन का नेतृत्व दल खालसा ने किया था। दल खालसा के कार्यकतार्ओं को जरनैल सिंह भिंडरावाले और खालिस्तानी अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की तस्वीरों वाली तख्तियां ले जाते हुए देखा गया, जिनकी 18 जून, 2023 को कनाडा में हत्या कर दी गई थी।


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