Saturday, July 6, 2024
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संयम और सत्य

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सुबह जा चुकी है। धूप गर्म हो रही है और मन छाया में चलने को है। एक वृद्ध अध्यापक आए हैं। वर्षों से साधना में लगे हैं। तन सूख कर हड्डी हो गया है। आंखें धूमिल हो गई हैं और गड्ढों में खो गई हैं। लगता है कि अपनों ने बहुत सताया है और उस आत्मपीड़न को ही साधना समझते हैं। प्रभु के मार्ग पर चलने को जो उत्सुकता है, उनमें अधिकतर का जीवन इसी भूल से विषाक्त हो जाता है। प्रभु को पाना संसार के निषेध का रूप ले लेता है और आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का। यह नकार दृष्टि उन्हें नष्ट कर देती है और उन्हें ख्याल भी नहीं आ पाता है कि पदार्थ का विरोध परमात्मा के साक्षात का पर्याय नहीं है। सच तो यह है कि देह के उत्पीड़क देहवादी होते हैं और संसार के विरोधी बहुत सूक्ष्म रूप से संसार से ही ग्रसित होते हैं। संसार के प्रति भोग-दृष्टि जितनी बांधती है, विरोधी दृष्टि उससे कम नहीं, बल्कि ज्यादा ही बांधती है। संसार और शरीर का विरोध नहीं वरन अतिक्रमण करना ही साधना है। वह दिशा न भोग की है और न ही दमन की है। वह दिशा दोनों से भिन्न है। वह तीसरी दिशा है। वह दिशा संयम की है। दो बिंदुओं के बीच मध्य बिंदु खोज लेना संयम है। पूर्ण मध्य में जो है, वह अतिक्रमण है। वह कहने को ही मध्य में है, वह कुछ भोग और कुछ दमन नहीं है। वह न भोग है और न दमन है। वह समझौता नहीं, संयम है। अति असंयम है, मध्य संयम है। मैं संयम और संगीत को साधना कहता हूं। वीणा के तार जब न ढीले होते हैं और न कसे होते हैं, तब संगीत पैदा होता है। बहुत ढीले तार भी व्यर्थ हैं और बहुत कसे तार भी व्यर्थ हैं। पर तारों की एक ऐसी स्थिति भी होती है, जब वे न कसे कहे जा सकते और न ढीले कहे जा सकते हैं। वह बिंदु ही उनमें संगीत का बिंदु बनता है। जीवन में भी वही बिंदु संयम का है। जो नियम संगीत का है, वह संयम का है। संयम से सत्य मिलता है।


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