Thursday, September 28, 2023
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हानिकारक है रेवड़ी कल्चर

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14 8देश में इन दिनों ‘रेवड़ी कल्चर’ काफी चर्चा में है। यानी मुफ्त में दी जाने वाली योजनाओं का चलन। जैसे फ्री बिजली, फ्री पानी या चुनाव के दौरान लैपटॉप, कैश या दूसरी चीजों को दिए जाने की घोषणा। आजकल चुनावों से पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त में आटा, बिजली, पेंशन, बेकारी भत्ता, प्लॉट या मकान, महिलाओं को बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा आदि तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। कांग्रेस ने अभी-अभी कर्नाटक विधानसभा चुनाव इसी तरीके से जीता है। सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त रेवड़ी कल्चर पर एतराज किया है। चुनाव आयोग को इसे आचार संहिता का उल्लंघन घोषित कर देना चाहिए। सवाल यह पैदा होता है कि इन मुफ्त की सुविधाओं के लिए पैसा कहां से आएगा। या तो सरकारों को उधार लेना पड़ेगा या फिर नए कर लगाने पड़ेंगे।सवाल उठता है कि राजनेताओं को सत्ता तक पहुंचाने के लिए हम ज्यादा टैक्स क्यों दें।

यह तो एक प्रकार से राजनीतिक भ्रष्टाचार है। किसी भी चुनाव में सत्ता पाने के लिए जनता को प्रलोभन और मुफ्त की रेवड़ियां बांटना किसी भी दृष्टि से सही नहीं है। यह तो स्वस्थ व्यक्ति को मुफ्त का लालच देकर उसे बीमार बनाने के समान है।

यह सब समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। कुछ भी मुफ्त देकर वोट पाना सीधे तौर पर सौदेबाजी और रिश्वत की श्रेणी में आता है। सवाल पैदा होता है कि मुफ्त की सुविधाओं के लिए पैसा कहां से आएगा। या तो सरकारों को उधार लेना पड़ेगा या फिर नये कर लगाने पड़ेंगे। पहले से ही करोड़ों के कर्ज में दबी सरकारें मुफ्त की घोषणाएं करें तो यह हास्यास्पद है।

देश की जनता को इस तरह की रेवड़ियों का बहिष्कार करना चाहिए। यही राष्ट्र हित में है। मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की बजाय राज्य सरकारों को युवाओं के लिए रोजगार उपलब्ध करवाने चाहिए। दरअसल, मुफ्त की घोषणाओं को कार्यान्वित करने से देनदारियां इतनी बढ़ जायेंगी कि भविष्य में अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ सकती है।

जिससे विकास की परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने में वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में बाधा आयेगी। देश में बेरोजगारी और महंगाई बढ़ेगी। सरकार को अतिरिक्त आय के संसाधन जुटाने पड़ेंगे। राजस्व निरन्तर बढ़ाने के लिए सरकार को अतिरिक्त संसाधनों का प्रबंध करना पड़ेगा।

राजनीतिक पार्टियां सत्ता प्राप्ति के लिए मुफ्त की रेवड़ी बांटकर मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रही हैं जो देश के लिए घातक है। जनता को सुविधाओं में कुछ रियायतें तो सही है मगर बिलकुल मुफ्त तो पतनकारी ही है। असल में इसकी शुरूआत आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में की थी, जो इसी कारण आज पंजाब में भी सत्ता में है और वह अब आगे बढ़ कर राष्ट्रीय पार्टी भी बन चुकी है।

सरकार को इन मुफ्त की रेवड़ियों के बदले जनता को सही काम के साथ सही दाम ही देना उचित है। इसके लिए तेजी से बढ़ते हुए निजीकरण को त्याग राष्ट्रीयकरण की ओर बढ़ना होगा तभी कुछ सुधार संभव है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि आए दिन चुनावों के दौरान खैरात बांटने जैसी हो रही घोषणाएं व्यक्ति को आलसी जीवन की ओर धकेल रही हैं।

मुफ्त की रेवड़ी बांटने की टूटती सीमाओं के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने राजनीति से इस संस्कृति समाप्त करने के साथ इसे देश और जनता के लिए घातक बताया। दिल्ली सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को फ्री में देना रेवड़ी बांटना नहीं मानती, जो कुछ सीमा तक सही है, किंतु जो भी रेवड़ी मुफ्त में बंट रही है, उन्हें एकदम बंद या समाप्त करना आसान नहीं है।

मुफ्त के बजाय रियायती मूल्यों पर सुविधा दी जाए या क्रमश: इनमें कटौती की जाए तो अधिक उत्तम होगा। बिना किसी शक ये कहा जा सकता है कि रेवड़ी कल्चर देश के भविष्य के लिए खतरनाक है। मुफ्त वाली योजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट का रुख भी सख्त है। मुफ्त के सामान बांटने की राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति अंतत: देश के राजकोष को पलीता ही लगाती है।

मुफ्त की योजनाओं के कारण ईमानदारी के साथ अपना टैक्स अदा करने वाले समुदाय के साथ अन्याय होता है। इसके साथ ही साथ सरकारें मुफ्त की स्कीम चला कर लोगों को पंगु भी बना रही हैं। फ्री की योजनाओं के कारण लोग काम करना नहीं चाहते हैं। चंद वोटों की लालच में लोगों को कर्महीन बनाना कहां तक जायज कहा जा सकता है?

साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त की घोषणाओं और वादों को लेकर एक अहम फैसला सुनाया था। इस संबंध में सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु केस काफी चर्चित रहा। साल 2006 का तमिलनाडु विधानसभा चुनाव जीतने के बाद डीएमके ने मुफ्त में कलर टीवी बांटने का वादा किया था। डीएमके सरकार के इसी फैसले को याचिकाकर्ता ने चुनौती दी थी।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने कहा कि फ्रीबीज पर पार्टियां क्या पॉलिसी अपनाती हैं, उसे रेगुलेट करना चुनाव आयोग के अधिकार में नहीं है। चुनावों से पहले फ्रीबीज का वादा करना या चुनाव के बाद उसे देना राजनीतिक पार्टियों का नीतिगत फैसला होता है।

इस बारे में नियम बनाए बिना कोई कार्रवाई करना चुनाव आयोग की शक्तियों का दुरुपयोग करना होगा। वर्तमान में अश्विनी उपाध्याय ने पुन: इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रूख किया है। इसके बाद देश में एक बहस छिड़ गई कि मुफ्त योजनाओं का दायरा क्या हो. कौन-सी योजनाएं या चुनावी घोषणाएं इसमें शामिल हो सकती हैं या नहीं हो सकती हैं।

मुफ्त रेवडियां बांट कर या बांटने का प्रलोभन दे कर भारत में राजनीतिक दल सत्ता साधने की प्रतिस्पर्धा में हैं। पूंजीवादोन्मुख मिश्रित अर्थव्यवस्था में यह प्रवृत्ति राष्ट्र, समाज तथा नागरिकों के दीर्घकालीन हित में कतई नहीं है। इससे उद्यमिता की अपेक्षा काहिली को प्रोत्साहन मिलता है। सरकार को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों के रूप में अधिक संसाधन जुटाने पड़ते हैं।

फलस्वरूप करदाताओं पर कर का अधिक बोझ पड़ता है। इसका सबसे बड़ा खतरा है जनता में काम न करने की प्रवृत्ति का पनपना तथा देश-प्रदेश में विकास एवं योजनाओं के लिए धन जुटाने की समस्या। जिसके लिए एक ही रास्ता है कर्ज लेकर काम चलाना, जिसका असर हम अपने देश के कई राज्यों तथा विश्व के कई देशों की गिरती अर्थव्यवस्था से देख चुके हैं।

मुफ्त रेवड़ियों के स्थान पर शिक्षा, कौशल विकास व प्रशिक्षण प्रकल्पों में निवेश कर नागरिकों को रोजगार हेतु सक्षम बनाना बेहतर होगा। रोजगार के नए अवसर उत्पन्न करने होंगे। सार्वजनिक क्षेत्र में नए उद्यम स्थापित करने हेतु रेवडियों स्वरूप वितरित की जाने वाली राशि से पूंजी का निवेश किया जा सकता है। इसलिए इस प्रथा को देश हित में सभी राजनीतिक दलों तथा जनता को मिलकर बन्द करना होगा।


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