कोरोना की दूसरी लहर के बीच आॅक्सीजन की कमी से मरने वालों की खबरें तो झकझोरती रहीं, लेकिन उस दौरान अस्पतालों में आग लगने से भी कई जानें गईं थीं। पहली खबर थी कि विगत अप्रैल में मुंबई के एक अस्पताल में आग लगने से 15 मरीजों की दर्दनाक मृत्यु हुई। उधर, गुजरात के सूरत शहर के एक अस्पताल में आग की चपेट में आने से 3 रोगी मारे गए। दिल्ली के विकासपुरी के एक अस्पताल में भी रात के वक्त आग लगी, हालांकि सभी 26 मरीजों और स्टाफ की जानें बचा लीं गर्इं। जून में ही दिल्ली के एम्स में दो बार आग लगी, लेकिन गनीमत रही कि जानी नुकसान नहीं हुआ। अस्पताल क्या, होटलों, फैक्टरियों, गोदामों वगैरह में भी आगजनी की वारदात जान-माल का नुकसान करती रहती हैं। ‘इंजरी प्रिवेंशन जनरल’ में छपी रिपोर्ट के अनुसार आगजनी से दुनिया की कुल मौतों में से 22.5 फीसदी भारत में होती हैं। साल 2017 के उपलब्ध आंकडों से जाहिर होता है कि भारत में 27 हजार व्यक्तियों की आग लगने के हादसों में मौतें हुईं। इस दौरान पूरी दुनिया में आग की चपेट में आने से 1 लाख 20 हजार लोगों ने जान गंवाई।
चिंताजनक वास्तविकता है कि दिल्ली समेत देश के तमाम महानगरों की सड़कों पर लगातार बढ़ती वाहनों की भीड़ के चलते पुलिस, एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड आपात बिंदु पर पहुंचने में पहले से ज्यादा वक्त लगाने लगी हैं। इनके अलावा आपदा प्रबंधन में जुटे आपात वाहनों की आवाजाही का यही हाल है। जबकि प्रतिबंधित रास्तों पर भी आपात वाहनों की आवाजाही को पूर्णता छूट मिलती है। एक हालिया रिपोर्ट से जाहिर होता है कि 12 हजार लीटर पानी से लबालब टैंकर को ढोती दमकल गाड़ी नई दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस से दरियागंज तक के साढ़े 3 किलोमीटर फासले को तय करने में 25 मिनट से ज्यादा लगाती है।
दिल्ली, मुंबई जैसे अतिव्यस्त महानगर में इतनी देरी बेहद घातक हो सकती है, क्योंकि अकेले दिल्ली में दमकल सेवा को रोज 100 फोन कॉल्स, सेंट्रल एक्सिडेंट एंड ट्रामा सर्विस को 800 फोन कॉल्स और पुलिस को 27,000 फोन कॉल्स से ज्यादा मिलती हैं। महानगरों में, सड़कों पर रेंकते वाहनों के ड्राइवर आपात गाड़ियों के साइरन या घंटी तक को अनसुना कर देते हैं। दमकल जैसे आपात वाहनों को बिना रुकावट मंजिल पर पहुंचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अकेले राजधानी में बीते साल आग की चपेट में आने से 305 लोगों की जानें गई थीं, जबकि चालू वर्ष के पहले 6 महीनों में ही 261 लोग आग लगने के हादसों में मरे। यानी अभी तक के आंकडे बताते हैं कि पूरे साल में आगजनी की घटनाओं में पांच सौ से अधिक लोग मर जाएंगे।
वास्तव में, आबादी के फैलाव की तुलना में दमकल स्टेशनों-वाहनों और एम्बुलेंस की तादाद नहीं बढ़ी। केंद्र सरकार के ‘नेशनल एम्बुलेंस सर्विस’ के तहत देश भर में 24,000 एंबुलेंस चलती हैं। लेकिन प्राइवेट एंबुलेंस का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। हर बड़े अस्पताल के पास भी 2-3 एंबुलेंस से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन तय है कि भारत एक लाख लोगों के लिए एक एंबुलेंस मुहैया कराने के विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश के नजदीक भी नहीं खड़ा होता। उधर बताते हैं कि अकेले दिल्ली में 1983 में कुल 15 दमकल स्टेशन थे, जो आज बढ़ कर 61 हो गए हैं। बावजूद इसके दिल्ली जैसे महानगरों में तो ट्रैफिक जाम के चक्कर में दमकल गाड़ियों को आगजनी के स्थल पर पहुंचने में देर होती है। लेकिन छोटे शहरों में भी स्थिति बेहतर न होने की वजह है कि देश में दमकल केंद्रों की कमी है। साल 2019 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 8,559 दमकल केंद्रों की जरूरत है, जबकि हैं 3,377 ही-यानी जरूरत से औसत 39 फीसदी कम। यही नहीं, देश में दमकल की गाड़ियों की तादाद तो 78 फीसदी कम है। इसलिए दमकल गाड़ियों को दमकल केंद्रों से आगजनी के मौके पर पहुंचने में ज्यादा फासला तय करना पड़ता है, जिससे पहुंचने में देर होना स्वाभाविक है।
देश भर की छोटी-बड़ी तमाम सड़कों की खस्ता हालत भी आपात वाहनों की देरी के लिए जिÞम्मेदार है। सड़कें टूटी हैं, खुदी हैं, गड्ढेदार हैं और संकरी हैं। इनकी मरम्मत के लिए चालू वित्त वर्ष में केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्यों को केंद्रीय सड़क फंड से 7,000 करोड़ रुपये की राशि दी है। एक और जरूरी कदम के तौर पर भारत में मोटर वाहन (संशोधन) बिल 2019 के प्रावधानों के अनुसार दमकल और एम्बुलेंस जैसे आपात वाहनों को रास्ता नहीं देने पर दस हजार रुपये का जुर्माना तय किया है। लेकिन असल में जुर्माने से माइंड सेट में बदलाव की जरूरत ज्यादा है। कायदा है कि जब सड़क पर आपात वाहन का साइरन सुनें या जगती-बुझती नीली या लाल बत्ती दिखे, तो उसे रास्ता देने के लिए साइड होने की कोशिश करें।
दिल्ली में कॉमन वेल्थ गेम्स के आयोजन के दौरान, खिलाड़ियों और आपात वाहनों के लिए अलग लेन तय की गई थी। तब एमरजेंसी वाहन 30 फीसदी कम वक्त में मौके पर पहुंचने लगे थे। हाल ही में, कोरोना की दूसरी लहर के पीक प्रकोप के दौरान दिल्ली समेत कई महानगरों की सड़कों पर पुलिस के बैरिकेड लगा कर, एंबुलेंस के लिए बिना विघ्न आने-जाने के लिए अस्थायी रास्ता बनाया था। क्या दिल्ली समेत महानगरों में ऐसी सड़क व्यवस्था हमेशा के लिए लागू नहीं की जा सकती? या कहें कि क्या एम्बुलेंस, दमकल और पुलिस के लिए सड़क के एक ओर ग्रीन रास्ता निर्धारित नहीं किया जा सकता? ज्यादा से ज्यादा जिंदगियां बचाने के लिए कुछ तो करना होगा वरना रास्ते बाधित होने से ऐसे ही मौतें होती रहेंगी, जो देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा।