Monday, May 12, 2025
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समाज सुधारक और महा दूरदृष्टा विवेकानंद

शैलेंद्र चौहान
शैलेंद्र चौहान

भारतीय समाज में ऐसे कई समाज सुधारक हुए, जिन्होंने समाज के ढांचे को पूरी तरह बदल कर रख दिया। ऐसे ही समाज सुधारकों में से एक हैं विवेकानंद। विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी, जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धांतों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धांत का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूंढा जा सके। विवेकानन्द को युवओं से बड़ी आशाएं थीं। आज 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे इस युवा संन्यासी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। 1893 में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे। यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद में बोलने का समय ही न मिले। परंतु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहां उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहां के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिंदू का नाम दिया। ‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को ‘गरीबों का सेवक’ कहते थे।

39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गए वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’ रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है वे जहां भी गए, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो। वे केवल संत ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-‘नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’ और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’

उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रांति के जरिये भी देश को आजाद करना चाहते थे। परंतु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियां उन इरादों के लिए अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके बाद ही विवेकानन्द ने ‘एकला चलो’ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला। उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केंद्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिंदू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था।

उन्होंने विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बंध गई थी। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है, जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है। उनकी दृष्टि में हिंदू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिंतकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है।

 


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