Tuesday, October 22, 2024
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सावित्री बाई फूले और वर्तमान में बाल शिक्षा

Samvad


02 2सावित्रीबाई फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, प्रथम शिक्षाविद्, समाज सुधारक और मराठी लेखक व कवियत्री थीं। उन्होंने उन्नीसवीं सदी में अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर शिक्षा के क्षेत्र के साथ साथ स्त्री अधिकारों, छुआछुत, सती प्रथा, विधवा विवाह का विरोध, बाल विवाह, अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष किया। सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव गॉव में हुआ था। 9 साल की आयु में उनकी शादी ज्योतिबा फुले के साथ हुई। जब विवाह हुआ था उस समय तक उनको स्कूली शिक्षा नहीं मिली थी। उनके पिता का मानना था कि शिक्षा का अधिकार केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था। जबकि उनके पति ज्योतिराव फुले की सोच थी कि दलित और महिलाओं की आत्मनिर्भरता, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए सबसे जरुरी है शिक्षा। उन्होंने इसी सोच को जमीनी हकीकत में उतारने की शुरुआत सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने से की।

सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के साथ मिल कर 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की, जिसमें दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषकर लड़कियों की संख्या ज्यादा थी। 1 जनवरी 1848 से 15 मार्च 1852 के दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले। उस दौर में ऐसा सामाजिक क्रांतिकारी पहल पहले किसी ने नही की थी। 1849 में उस्मान शेख के घर पर मुस्लिम स्त्रियों व बच्चों के लिए स्कूल खोला। सावित्रीबाई फुले के इन्ही प्रयासों के कारण महिलाओं को शिक्षा मिलने की शुरूवात हुई परन्तु इतने सालों बाद भी बच्चियां शिक्षा के मामले में पिछड़ी और वंचित हैं।

इसके पीछे कई कारण हैं जो आज भी कम-ज्यादा रूप में अनवरत जारी हैं। हमारा समाज पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित है जिसके कारण बालिका शिक्षा को लेकर आज भी परिवार और समाज की सोच है कि बालिका पराया धन है, इसे आगे चल कर ससुराल जाना है, घर परिवार की देखभाल/ चूल्हा चौका ही करना है, इसलिए वो इतनी ही शिक्षा प्राप्त कर ले जिससे उसे हिसाब-किताब, थोडा पढ़ना-लिखना आ जाए। परिवार का जोर उसे घर के कामों को सिखाने में ज्यादा होता है। बच्चियों का आज भी बाल विवाह होना जारी है जिसके कारण उनकी शिक्षा प्रभावित होती हैं।

स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न होना, स्कूलों का लगातार बंद होना, अधोसंरचना-पर्याप्त शिक्षक/स्टाफ की कमी, शौचालय का न होना, ताला लगा होना, पानी न होना और अगर है तो उसकी साफ-सफाई न होना भी बच्चियों के स्कूल न जाने के कारण हैं। यूनेस्को द्वारा ‘स्टेट ऑफ द एजुकेशन रिपोर्ट 2021: नो टीचर नो क्लास’ नामक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 1.10 लाख ऐसे स्कूल हैं जो केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। वही शिक्षकों के 11.16 लाख पद खाली पड़े हैं इनमें से ज्यादातर 69 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों के स्कूल हैं। स्कूल न जाने/छोड़ने का एक अहम कारण सुरक्षा भी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट देखें तो लड़कियों के प्रति हिंसा लगातार बढ़ रही है।

ये बड़ी विडंबना है कि ज्यादातर बड़ी कक्षा के स्कूल या तो गांव के बाहर या दूसरे गांव में होते हैं, जिसके कारण बच्चियों को पढ़ने के लिए दूर जाना पड़ता है और रास्ते में लड़के खड़े हो कर लड़कियों के साथ छेड़छाड़,गंदी बातें/हरकतें करते हैं। इसी के कारण परिवार वाले बच्चियों को स्कूल में भेजना नहीं चाहते हैं और ये भी देखने में आता है कि अगर स्कूल जाते समय किसी बच्ची के साथ लैंगिक हिंसा होती है तो उसका असर आसपास के कई गांवों के बच्चियों की शिक्षा पर पड़ता हैं।

देखने में आता है कि कई आदिवासी परिवारों में उनके लड़के/लड़कियां फस्ट लर्नर हैं और इन्हें घर से किसी भी तरह का सहयोग नहीं मिल पाता है, जिससे ये धीरे-धीरे अन्य बच्चों से पिछड़ जाते हैं और पढ़ाई छोड़ देते हैं। पारधी जनजाति के प्रति पूर्वाग्रह होने के कारण इनके साथ स्कूलों में भेदभाव होता है, कहीं भी कोई क्राइम होता है तो पुलिस इन्हीं पर शक करती है, जिसके कारण पुरुष ज्यादा घर से बाहर नहीं निकलते हैं और महिलाओं और बच्चियों को काम करना पड़ता है। इसी तरह बेडिया जनजाति में बच्चियों को स्कूल के बदले उनके ट्रेडिशनल काम (वेश्यावृत्ति) में लगा दिया जाता है।

कोरोना काल में शिक्षा का सबसे ज्यादा नुकसान बच्चियों को हुआ है। ज्यादातर बच्चियां आनलाइन शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाई हैं और अब वो अपनी कक्षा के अन्य बच्चों से पिछड़ गईं हैं। कोरोना के कारण लोगों के रोजगार चले जाने से चलते लड़के-लड़कियां मजदूरी करने को मजबूर हैं। देश में बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ सही समय पर नहीं मिल पाता है। अगर इन विभिन्न योजनाओं का लाभ समय पर मिले तो बालिकाओं के शिक्षा ग्रहण करने में बढ़ोतरी होगी।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बालिकाओं और महिलाओं की शिक्षा में भागीदारी बढ़ाने के लिए जेन्डर-समावेशी कोष बनाने की बात की है। इस कोष से राज्यों को महिला सम्बंधी नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों आदि को लागू करने में सहायता मिलेगी, जिससे बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा, विद्यालय परिसर में अधिक सुरक्षापूर्ण और स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा। सावित्री बाई फुले का ये सपना था कि देश की हर बच्ची/महिला शिक्षित हो। परिवार और समाज में ये विश्वास लाना होगा कि बालिका शिक्षा का महत्व क्या है और अगर बच्चियों को मौका दिया जाए तो वो जीवन में आगे बढ़ सकती हैं।


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