एक नगर का एक धनी सेठ दिवंगत हो गया। उसका पुत्र अवयस्क था। पुत्र ने सेठ के मुनीम को बुलाया और पूछा, ‘मुनीम जी! पिताजी के सारे बही खाते आपके पास है। कृपया बताएं। पिताजी अपने पीछे कितनी संपत्ति छोड़कर गए हैं।’ मुनीम बोला, ‘बेटा, इतनी संपत्ति है कि सात पीढियां आराम से बैठकर उसका भोग करें, तब भी वह समाप्त नहीं होने वाली।’ यह सुनते ही लड़का उदास हो गया। बोला, ‘बस इतना ही। आठवीं पीढ़ी का क्या होगा?’ मुनीम सेठ के बेटे की मानसिकता समझ गया।
उसने सोचा, इसे सही बोध पाठ देने की जरूरत है। ऐसा सोचकर मुनीम ने कहा, ‘कुल की रीति यह है कि पिता के निधन के बाद पर्याप्त रूप में संपत्ति किसी धर्मात्मा व्यक्ति को दी जातीहै।’ उन्होंने एक धर्मात्मा व्यक्ति का नाम भी बता दिया। सेठ का पुत्र पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न लेकर उस धर्मात्मा व्यक्ति के यहां पहुंचा और अपना परिचय देते हुए कहा, ‘महाराज! इसे स्वीकार करें।’ धर्मात्मा व्यक्ति बोला, ‘शाम के लिए भोजन है और मैं संग्रह करता नहीं हूं। इसलिए तुम्हारा दान मुझे स्वीकार नहीं।’ सेठ का बेटा घर आ गया।
अब मुनीम ने सेठ पुत्र से कहा, ‘अब आठवीं पीढ़ी के बारे में चर्चा कर लेते हैं।’ सेठ पुत्र ने कहा, ‘अब चर्चा कैसी? उस ब्राह्मण साधु ने तो मेरी आंख खोल दी। वह शाम की चिंता नहीं करता और मैं आठवीं पीढ़ी की चिंता करता हूं। अब आप ही यह व्यापार संभालें।’ कहने का अर्थ यह कि त्याग की चेतना जागने पर सारा दृष्टिकोण बदल जाता है।