Saturday, June 29, 2024
- Advertisement -
Homeसंवादभावनाएं आहत होने का सिलसिला

भावनाएं आहत होने का सिलसिला

- Advertisement -

Samvad


SUBHASH GATADEआए दिन किसी न किसी की आहत भावनाओं की-फिर चाहे किसी फेसबुक पोस्ट से उपजा बवाल हो या किसी का वक्तव्य हो या किसी रचना में खास समुदाय विशेष को लेकर की गई कुछ बातें हों-बात होती रहती है और गोया उसकी स्वाभाविक प्रतिकिया के तौर पर उत्पाती समूहों द्वारा इसका बदला लेने के लिए की गई हिंसात्मक कार्रवाइयों की खबर आती रहती है, जिनमें अक्सर कानून के रखवाले कहने वाले लोगों के निर्विकार मौन या तटस्थता की खबरें भी सुर्खियां बनती हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से इसी से जुड़ा एक सवाल अधिक मौजूं होता दिख रहा है और जो कहीं-कहीं दबी जुबान से ही सही उठ रहा है, सुदूर कराची से होते हुए पटियाला तक या उत्तराखंड के गांव से होता हुआ यह सवाल बांग्लादेश में पहुंचता दिखा है। सवाल यही है कि आखिर किसकी भावनाएं आहत होती हैं?

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की अहमदिया जमात में इसे इन दिनों बखूबी सुन सकते हैं, जहां इस अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े एक जाने-माने और काबिल वकील पर ईशनिंदा के आरोप लगाए गए हैं और जिसकी परिणति मौत या लंबे कारावास में होने की संभावना है।

मामला उस शिकायत से जुड़ा है जिसके तहत एक सहयोगी वकील ने उन पर आरोप लगाए हैं कि किसी मामले की पेशी के वक्त शपथपत्र दाखिल करते हुए उन्होंने अपने नाम के साथ ‘सैयद’ जोड़ा था, जिसकी वजह से शिकायतकर्ता की भावनाएं आहत हो गर्इं।

विगत चार दशक से अधिक समय- जबसे मिर्जा कादियानी द्वारा स्थापित इस संप्रदाय को गैर-इस्लामिक घोषित किया गया, इसे जबरदस्त धार्मिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है। वैसी ही आवाजें चंद रोज पहले सूबा पंजाब के पटियाला से भी सुनाई दी, जब गुरुद्वारे में शाम के वक्त़ अकेली बैठी पैंतालीस साल की एक महिला को देखकर वहां दर्शन के लिए गए दूसरे शख्स ने उस पर बाकायदा गोली चला दी और उस महिला ने वहीं दम तोड़ दिया।

पता चला कि हत्यारे की भावनाएं यह देख कर ‘आहत’ हो गई थीं, जब कथित तौर पर यह देखा कि वह महिला शराब का सेवन कर रही है। गौर करने वाली बात है कि न शराब पीना अपने आप में गैर कानूनी है और अगर कोई चीज गैर कानूनी है तो आप उसकी शिकायत कर सकते है, और फिर अदालत उसमें फैसला दे सकती है। जाहिर है ऐसा कुछ नहीं हुआ।

चंद माह पहले उत्तराखंड के एक दलित युवक पर पुलिस ने मंदिर अपवित्रीकरण का केस दर्ज किया। मामले की शिकायत करने वाले कथित उंची जाति के कुछ लोग थे। दरअसल यह वही लोग थे जिन्होंने चंद रोज पहले दलित युवक को मंदिर प्रवेश से रोका था और बुरी तरह पीटा था, जिसके चलते उन सभी पर अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून 1989 के तहत केस दर्ज हुए थे।

उधर दलित युवक अस्पताल में भर्ती था और इन वर्चस्वशाली लोगों ने पुलिस और अदालत में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसके खिलाफ यह झूठा केस दर्ज किया। आजादी के पचहत्तर साल बाद आखिर कितनी आसानी से अस्पृश्यता निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामले को हल्का किया जा सकता है और किस तरह दलितों के वास्तविक अपमान को दबंगों के झूठे अपमान से कमजोर किया जा सकता है।

बांग्लादेश की एक अग्रणी पत्रकार ने महज एक साल पहले अपने एक तीखे आलेख में यही सवाल बिल्कुल सीधे तरीके से पूछा था जब बांग्लादेश के नारैल नामक स्थान पर अल्पसंख्यक हिंदू हमले का शिकार हुए थे, जब किसी हिंदू युवक के फेसबुक पोस्ट के चलते बहुसंख्यक इस्लामिस्ट उग्र हुए थे।

अपनी ‘आहत भावनाओं’ की प्रतिक्रिया में एक संगठित हिंसक भीड़ ने उनकी बस्ती पर हमला किया था। अगर आप बांग्लादेश के अखबारों के उन दिनों के विवरण पढ़ेंगे तो वह उसी किस्म के होंगे जैसी खबरें पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान या अपने मुल्क से आती हैं।

कई लोग घायल हुए, महिलाओं को अपमानित किया गया, मकानों और घरों को लूटा गया, जलाया गया; हमलावरों में अच्छा खासा हिस्सा अगल बगल के गांव का ही था और जिनमें कई परिचित चेहरे भी शामिल थे। और पुलिस हमेशा की तरह यहां भी मूकदर्शक बनी रही।

पत्रकार के लिए यह सोचना भी कम तकलीफदेह नहीं था कि किस तरह धर्म के नाम पर अपराधों का शिकार होने वाले लोग, समुदायों को आतंकित करने वाली घटनाओं के भुक्तभोगी लोग- ऐसी घटनाएं जो आप को बेहद असुरक्षित और निराश कर देती हैं-इतना सा दावा भी नहीं कर सकते कि वे बुरी तरह, बेहद बुरी तरह अपमानित, घायल हुए हैं।

आखिर एक अदद फेसबुक पोस्ट पर, जिसकी सत्य-असत्यता की पड़ताल भी नहीं हुई है-एक व्यक्ति को गिरफ़्तार करने के लिए अपनी प्रचंड सक्रियता दिखाने वाली पुलिस मशीनरी आखिर उस वक्त कहां विलुप्त हो जाती है जब अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को अंजाम देने वालों की गिरफ़्तारी का वक्त आता है, उसे अचानक कैसे लकवा मार जाता है?

कानून के रखवाले या तो गैर-हाजिर होते हैं या तब तक निष्क्रिय बने रहते हैं, जब तक पूरी तरह से तबाही मचाकर हमलावर लौट न जाएं। स्टैंड अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को जिस तरह उस जोक के लिए जेल भेजा गया, जो उन्होंने कार्यक्रम में सुनाया तक नहीं गया, वह घटना तो आप जानते ही हैं; लेकिन कम लोग जानते होंगे कि अग्रणी क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी- जो उनके अन्य हमपेशा लोगों की तरह किसी भी सामाजिक राजनीतिक मसले पर बोलते नहीं हैं, सिर्फ अपनी गेम पर ही ध्यान देते हैं- वह खुद भी कुछ साल पहले ‘धार्मिक भावनाओं के आहत’ होने के मामले कुछ धार्मिक अतिवादियों के निशाने पर आए थे।

किसी ने भगवान विष्णु के बने कैलेंडर में धोनी की इमेज का प्रयोग किया था और जिसने ‘भावनाएं आहत’ होने वाली ब्रिगेड को सक्रिय कर दिया था। गनीमत थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में हस्तक्षेप किया और उसकी त्रिसदस्यीय पीठ ने मामले को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि ‘धर्म के नाम पर होने वाले ऐसे अपमान, जो असावधानी में होते हों या जिन्हें बिना किसी बुरी नीयत के अंजाम न दिया गया हो ताकि खास समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहत हों, उन्हें किसी भी सूरत में धार्मिक भावनाओं के आहत होने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

वैसे घटाटोप के इस माहौल में सुकून देने वाली बात यह ढूंढी जा सकती है कि जगह-जगह आवाजें उठ रही हैं किसी बहुआस्थाओं वाले मुल्क में आहत होने के दोहरेपन को प्रश्नांकित करती दिख रही हैं और अल्पसंख्यक पर होने वाले हमलों के मामलों में बहुसंख्यकों के विराट मौन को भी प्रश्नांकित करने को तैयार हैं।

बांग्लादेश के ही एक अन्य लेखक ने नारैल की घटनाओं के दिनों में ही लिखा था कि किस तरह ऐसा मौन समाज में विभिन्न तबकों की हिंसा का सामान्यीकरण कर देता है और इस बात की भी चीरफाड़ की थी कि ऐसा मौन एक तरह से एक ‘झुंडवाद’ का नतीजा है-जिसके तहत लोग अपने समूह या अपने समुदाय के प्रति जबरदस्त एकनिष्ठा का प्रदर्शन करते हैं।


janwani address 5

What’s your Reaction?
+1
0
+1
2
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
- Advertisement -

Recent Comments