क्या विदेश जाने का सपना इतना बड़ा हो गया है कि लोग अपनी जान तक दांव पर लगाने को तैयार हैं? क्या कुछ लाख रुपये खर्च कर अवैध रास्तों से अमेरिका या कनाडा पहुंचने की कोशिश करने वाले यह नहीं सोचते कि अगर पकड़े गए तो उनका क्या होगा? क्या उनके परिवार, जिन्होंने अपनी जीवनभर की कमाई इन खतरनाक योजनाओं में झोंक दी, इस दर्द और हताशा को सहने के लिए तैयार हैं? हाल ही में अमेरिका से बड़ी संख्या में भारतीयों को डिपोर्ट किया गया। यह केवल एक कानूनी कार्रवाई नहीं, बल्कि एक सामाजिक और मानवीय संकट का प्रतीक है। अवैध रूप से अमेरिका पहुंचने का ख्वाब देखने वाले युवाओं में अधिकांश पंजाब, हरियाणा और गुजरात से हैं। वे लाखों रुपये खर्च कर ट्रैवल एजेंटों और मानव तस्करों के जाल में फंस जाते हैं। ये दलाल उनके लिए सिर्फ ह्यमालह्ण होते हैं, जिन्हें किसी भी तरह सीमाओं के पार भेजना ही उनका लक्ष्य होता है। क्या यह सोचने वाली बात नहीं है कि इतनी बड़ी रकम अवैध तरीके से विदेश जाने में लगाने के बजाय, अपने ही देश में एक बेहतर भविष्य बनाने में खर्च की जा सकती थी?
अमेरिका में घुसपैठ के लिए अवैध मार्ग चुनने वाले अधिकांश लोग मैक्सिको के रास्ते अमेरिका पहुंचने की कोशिश करते हैं। इसके लिए वे कई दिनों तक दुर्गम जंगलों, खतरनाक रेगिस्तानों और हिंसक मानव तस्करी गिरोहों के बीच भटकते हैं। उन्हें फर्जी दस्तावेज दिए जाते हैं, नकली कहानियां रटाई जाती हैं, और कई बार खतरनाक कंटेनरों या ट्रकों में भरकर सीमा पार करवाई जाती है। इस सफर में कई लोग भूख-प्यास से मर जाते हैं, कुछ सीमा सुरक्षा बलों द्वारा पकड़ लिए जाते हैं, तो कुछ मानव तस्करों के चंगुल में फंसकर बंधुआ मजदूरी तक करने को मजबूर हो जाते हैं। फिर भी, हर साल सैकड़ों लोग इस जानलेवा सफर पर निकल पड़ते हैं, यह सोचकर कि शायद वे सफल हो जाएंगे। लेकिन क्या यह सफलता है? अमेरिका ने हाल के वर्षों में अपनी आव्रजन नीति को और सख्त कर दिया है। हाल ही में सैकड़ों भारतीयों को डिपोर्ट किया गया, जो बिना वैध दस्तावेजों के वहां पहुंचे थे। हिरासत केंद्रों में महीनों तक अमानवीय परिस्थितियों में रहने के बाद, जब वे खाली हाथ और टूटे सपनों के साथ भारत लौटते हैं, तो उनके पास न धन बचता है, न आत्मसम्मान।
अमेरिका में फंसे इन भारतीयों को अक्सर शरणार्थी बताकर बचने की सलाह दी जाती है। लेकिन झूठे दावे ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाते। भारतीयों के मामले में यह और मुश्किल हो जाता है क्योंकि भारत राजनीतिक अस्थिरता वाला देश नहीं है, जहां से शरणार्थियों के पलायन को जायज ठहराया जा सके। ऐसे में जब वे शरण की अर्जी देते हैं, तो वह ज्यादातर मामलों में खारिज कर दी जाती है और फिर उन्हें डिपोर्ट कर दिया जाता है। सवाल यह है कि क्या इन तथ्यों से अनजान रहकर भी लोग जोखिम लेने को तैयार हैं? इस समस्या के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारण भी जिम्मेदार हैं। विदेश में बसने को अब भी एक बड़ी सफलता के रूप में देखा जाता है। पंजाब, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में परिवार अपने बच्चों को विदेश भेजने के लिए लाखों रुपये खर्च करने को तैयार रहते हैं, भले ही तरीका अवैध ही क्यों न हो। वे यह नहीं सोचते कि अगर यह योजना विफल हो गई, तो क्या होगा? कई बार तो युवा खुद भी इस दबाव में होते हैं कि अगर वे विदेश नहीं गए, तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी। लेकिन क्या प्रतिष्ठा पैसे गंवाने, अपमान सहने और फिर खाली हाथ लौटने से बची रह सकती है?
भारत सरकार को इस समस्या पर सख्त रुख अपनाने की जरूरत है। ट्रैवल एजेंटों और मानव तस्करों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि वे भोले-भाले युवाओं को गुमराह न कर सकें। अमेरिका और अन्य देशों के साथ समन्वय बनाकर ऐसे गिरोहों का पदार्फाश किया जाना चाहिए। इसके अलावा, विदेश में नौकरी के इच्छुक युवाओं को कानूनी और सुरक्षित मार्गों के बारे में सही जानकारी देने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। सवाल यह भी है कि क्या सरकार को देश में ही रोजगार के बेहतर अवसर नहीं पैदा करने चाहिए? अगर 50-60 लाख रुपये खर्च करके कोई अवैध रूप से विदेश जाने की योजना बना सकता है, तो उतनी ही राशि अपने ही देश में किसी व्यापार या रोजगार में लगाकर बेहतर भविष्य बनाया जा सकता है। अगर देश में युवाओं के लिए पर्याप्त अवसर होंगे, तो शायद वे अपनी जान जोखिम में डालने के बजाय यहीं बेहतर भविष्य बनाने के बारे में सोचेंगे।
हर साल सैकड़ों भारतीय अवैध रूप से अमेरिका जाने के प्रयास में अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर बैठते हैं। वे सिर्फ अपने सपनों की नहीं, बल्कि अपने परिवारों की उम्मीदों की भी बलि चढ़ा देते हैं। क्या अब भी हमें चेतने की जरूरत नहीं है? क्या अब भी यह समझ में नहीं आ रहा कि अवैध तरीके से विदेश जाना किसी भी हालत में समाधान नहीं हो सकता? सवाल सिर्फ अमेरिका से भारतीयों के डिपोर्टेशन का नहीं है, बल्कि सवाल उस मानसिकता का भी है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि विदेश में रहना ही सफलता की गारंटी है। जब तक इस सोच को नहीं बदला जाएगा, तब तक ऐसे दर्दनाक मामलों की पुनरावृत्ति होती रहेगी। इसलिए सवाल यह नहीं कि अमेरिका की नीति क्या है, बल्कि सवाल यह है कि हम अपनी सोच कब बदलेंगे?