Thursday, April 17, 2025
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हाथों में लाचारी के फावड़े और बेबसी की मिट्टी

  • श्रमिक दिवस पर विशेष: र्इंट-भट्ठों पर जीवन को सांचे में ढाल रहे बाल श्रमिक
  • इन मासूमों को नहीं पता शिक्षा के मायने, शिक्षा विभाग ने फेरी नजरे
  • स्कूल चलो अभियान को आईना दिखा रहे बाल श्रमिक

जनवाणी संवाददाता |

सरधना: सिस्टम भले ही गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षित करने का दावा करता हो, लेकिन सच्चाई इससे कोसो मील दूर है। गरीबी के आगे बेबस कुछ मासूम ऐसे भी हैं, जिन्हें शिक्षा के मायने तक नहीं पता। यह बाल श्रमिक पेट की आग बुझाने के लिए र्इंट-भट्ठों पर श्रमिकी करके जीवन को सुनहरे भविष्य के सांचे में ढालने की जद्दो-जहद कर रहे हैं।

दूसरों के आशियाने बनवाने में नींव बने यह मासूम भी पढ़-लिखकर देश के विकास में भागेदारी निभाना चाहते हैं, लेकिन इनके पैरों में बेबसी और गरीबी की बेड़ी पड़ी है। जो इन्हें र्इंट-भट्ठों की नरकीय जीवन वाली परिसीमा से बाहर निकलने नहीं देती। मासूमों को उम्मीद है तो उस एक किरन की जो उन्हें इस अंधियारे जीवन से उठाकर शिक्षा की रोशनी में पहुंचा सके। मगर अफसोस सिस्टम इन मासूम की ओर से नजरे फेरे हुए हैं।

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देश का भविष्य कही जाने वाली नई पीढ़ी को शिक्षित करने के साथ ही उन्हें आत्मानिर्भर करने के लिए सरकार ने विभिन्न योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन यह योजनाएं सबसे निचले तबके तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देती हैं। योजनाएं परवान तो चढ़ती हैं। केवल कागजों का पेट भरने के लिए। यही कारण है कि देश में आज भी ऐसे मासूमों की बड़ी संख्या है जो विद्यालय जाने की उम्र में पेट पालने को श्रमिकी कर रहे हैं। चाय की दुकानें हो या होटल सभी जगह मासूमों को श्रमिकी करते देखा जा सकता है।

र्इंट-भट्ठों पर भी यहीं हाल है। जिन कोमल हाथों में कलम और किताबें होनी चाहिए। उन हाथो में सांचे हैं जो र्इंटों के साथ अपने जीवन को ढालने की जद्दो-जहद कर रहे हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि इन बाल श्रमिकों के मन में शिक्षा का दीपक जलाने का सपना न हो। बल्कि इनके पैरों में गरीबी और जिम्मेदारियों की बेड़ी पड़ी है। जिसके चलते शिक्षा की ज्योति मन में ही बुझ कर रह जाती है। पूछे जाने पर मासूमों की आंखें होठों से ज्यादा बोलती हैं। झंझोर देने वाला मासूम जवाब मिला कि साहब पढ़ने के लिए जिंदा रहना भी जरूरी है।

यह सवाल सिस्टम के मुंह पर एक तमाचा है। सरकार द्वारा सर्व शिक्षा का अभियान भी यहां तक आने से पहले ही दम तोड़ देता है। स्कूल चलो अभियान के नाम पर महज चंद गलियों में घूमकर शिक्षक अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। शिक्षा विभाग ने इस हकीकत से नजरे फेर रखी हैं या सब कुछ जानकर भी अंजाम बने हुए हैं। गरीबी और जिम्मेदारी का बोझ बाल श्रमिकों को र्इंट-भट्ठों की परिसीमा से बाहर नहीं निकलने देती।

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मासूमों को उम्मीद है तो उस एक किरन की जो उन्हें इस बेबसी के अंधेरे से उठाकर शिक्षा की रोशनी तक पहुंचा सके। वहीं, इस संबंध में एबीएसए सरधना प्रदीप कुमार का कहना है कि फिलहाल स्कूल चलो अभियान चल रहा है, जिसके तहत बच्चों व अभिभावकों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया जाता है। र्इंट-भट्ठे जैसी जगह पर काम करने वाले बच्चों को चिंहित करने का काम किया जाएगा। ताकि उन्हें शिक्षा के साथ समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके।

बाल श्रम अधिकारी भी नींद में

हालांकि सरकार ने बाल श्रम रोकने के लिए श्रम विभाग भी बना रखा है, लेकिन अधिकारी कागजों का पेट भरने के अलावा कुछ नहीं करते। या फिर यूं कहिए कि उन्हें बच्चें श्रमिकी करते नजर नहीं आते। जो भी हो कमजोर बाल श्रम कानून व्यस्था के आगे मासूमों का भविष्य दम तोड़ रहा है।

चंद गलियों में सिमट जाता है स्कूल चलो अभियान

हर बार नया सत्र शुरू होते ही शिक्षा विभाग द्वारा बच्चों और अभिभावकों को जागरुक करने के लिए स्कूल चलो अभियान के तहत रैलियां निकाली जाती है। ताकि बच्चों को पढ़ाई के लिए विद्यालय तक लाया जा सके। मगर यह अभियान चंद गलियों में सिमट कर रह जाता है।

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