नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉट कॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत और अभिनंदन है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती समाज को नयी दिशा देने वाले एक महान मार्गदर्शक थे। स्वामी जी ने जीवन भर वेद, उपनिषद और वैदिक ज्ञान को समाज में बांटा। साथ ही वे नारी कल्याण, समान शिक्षा और एकता का संदेश देते रहे। इसके अलावा सामाजिक कुप्रथाओं, बाल विवाह और सती प्रथा का विरोध किया। आज हम स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन पर आधारित कई अनछुए पहलुओं को जानेंगे।
बता दें कि आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात में राजकोट जिले के टंकारा में 12 फरवरी 1824 को हुआ था। शुरू में स्वामी दयानंद को मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी के नाम से जाना जाता था। 30 अक्टूबर 1883 को दुनिया से अलविदा कह दिए।
महर्षि दयानंद सरस्वती सन्यास
सन् 1846 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने 21 वर्ष की आयु में अपने जीवन को एक नया मोड दिया। स्वामी जी ने विवाह करने से इंनकार कर दिया था। इस बात पर ही अपने पिता से विवाद कर सन्यासी जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया।
आर्य समाज की स्थापना
स्वामी जी ने वर्ष 1875 में गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। स्वामी जी ने आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म है इसके आधार पर ही नींव रखी। कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया, लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका।
समाज में कुरीतियों का विरोध
बाल विवाह विरोध
स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगो को बाल विवाह प्रथा के विरुद्ध जगाया। तार्किक ज्ञान के आधार पर लोगों को बताया कि अगर बाल विवाह होता हैं, वो मनुष्य निर्बल बनता हैं और निर्बलता के कारण समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त होता हैं।
सती प्रथा विरोध
पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सति प्रथा का भी इन्होने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया। परोपकार का संदेश दिया।
विधवा पुनर्विवाह
दयानन्द सरस्वती जी ने इस बात की बहुत निन्दा की और उस ज़माने में भी नारियों के सह सम्मान पुनर्विवाह के लिये अपना मत दिया और लोगो को इस ओर जागरूक किया।
वर्ण भेद का विरोध
उन्होंने सदैव कहा शास्त्रों में वर्ण भेद शब्द नहीं, बल्कि वर्ण व्यवस्था शब्द हैं, जिसके अनुसार चारों वर्ण केवल समाज को सुचारू बनाने के अभिन्न अंग हैं, जिसमे कोई छोटा बड़ा नहीं अपितु सभी अमूल्य हैं। उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया।
एकता का संदेश
दयानन्द सरस्वती जी का एक स्वप्न था, जो आज तक अधुरा हैं, वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे। उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता हैं, इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक हैं। जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों को एक माला में पिरो ना सके।
नारि शिक्षा एवम समानता
स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया. उनका मानना था कि जीवन के हर एक क्षेत्र में नारियों से विचार विमर्श आवश्यक हैं, जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं।