माता वैष्णव देवी के मंदिर में मची भगदड़ में एक दर्जन श्रद्धालुओं की मौत न सिर्फ मंदिर प्रबंधन की बदइंतजामी को उजागर करता है, बल्कि यह भी रेखांकित करता है कि एक मामूली कहासुनी व हाथापाई किस तरह एक बड़े हादसे का सबब बन सकती है। बताया जा रहा है कि मंदिर के गर्भगृह के बाहर उमड़ी भीड़ में शीध्र दर्शन को लेकर कुछ लोगों के बीच धक्कामुक्की से भगदड़ मच गई और दर्जनों लोग कुचलकर मर गए। समझना कठिन है कि जब मंदिर प्रबंधन अच्छी तरह अवगत था कि वर्ष के प्रथम दिन हजारों लोगों की भीड़ जुट सकती है तो फिर सुरक्षा का पुख्ता व्यवस्था क्यों नहीं किया?
जब कोविड प्रोटोकॉल के तहत दर्शन के लिए प्रतिदिन 35000 यात्रियों को भेजने की अनुमति थी तो फिर 70 से 80 हजार लोग कैसे पहुंच गए? प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो व्यवस्थित ढंग से भीड़ नियंत्रण का इंतजाम नहीं था और न ही दर्शन के लिए पंजीकरण की जांच की गई, लिहाजा अव्यवस्था उत्पन हो गई। जिस जगह पर हादसा हुआ है वहां पर जगह तंग है, इसलिए भगदड़ के बाद किसी को भागने के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिल सकी। अगर दिशा निर्देशों का पालन करते हुए पंजीकरण की जांच की गई होती तो यह हादसा नहीं होता।
देखें तो यह पहली बार नहीं है जब देश में मंदिर प्रबंधनों की बदइंतजामी और श्रद्धालुओं की अनुशासनहीनता से मौत का भगदड़ मचा हो। याद होगा 14 जुलाई, 2015 को आंध्रप्रदेश राज्य के राजामुंदरी में पुष्करम उत्सव के उद्घाटन समारोह में भगदड़ मचने से तकरीबन 27 श्रद्धालुओं की जान चली गई। 3 अक्टुबर, 2014 को पटना के गांधी मैदान में दशहरा आयोजन में मची भगदड़ में 32 लोगों की जान गयी। इसी तरह 13 अक्टुबर 2013 को मध्यप्रदेश राज्य के रतनगढ़ मंदिर में मची भगदड़ में 113 लोगों और कामतानाथ मंदिर में मची भगदड़ में एक दर्जन से अधिक श्रद्धालुओं को जान गई। 11 फरवरी, 2013 को इलाहाबाद महाकुंभ के दौरान स्टेशन पर यात्रियों की भगदड़ में तीन दर्जन से अधिक लोगों की जान गयी। 19 नवंबर 2012 को बिहार में गंगा नदी पर छठ पुजा के लिए बना अस्थायी पुल टूटने से 8 श्रद्धालुओं की मौत हो गई। 8 नवंबर, 2011 को हरिद्वार के हरकी पौड़ी घाट पर भगदड़ मचने से 20 लोगों की जान गई। 14 जनवरी 2011 को मकर संक्रान्ति के पावन अवसर पर केरल के सबरीमाला मंदिर में मची भगदड़ में तकरीबन 106 श्रद्धालुओं की मौत हुई। 3 अगस्त, 2008 को हिमाचल प्रदेश के विलासपुर स्थित नैना देवी के मंदिर में भीषण हादसा हुआ जिसमें 162 लोगों की जान गयी। 16 अक्टुबर 2010 को बिहार राज्य के बांका जिले के दुर्गा मंदिर में हादसे में 10 लोगों को जान गंवानी पड़ी। 14 अप्रैल 2010 को हरिद्वार में शाही स्नान के दौरान मचे भगदड़ में 10 लोग मारे गए। 14 जनवरी 2010 को पश्चिम बंगाल के गंगासागर मेले में भगदड़ में आधा दर्जन लोगों की मौत हुई। इसी तरह 21 दिसंबर 2009 को राजकोट के धोराजी कस्बे में धार्मिक कार्यक्रम के दौरान भगदड़ में 8 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। 14 अप्रैल 1986 में हरिद्वार कुंभ मेले में हर की पैड़ी के उपर कांगड़ा पुल पर मुख्य स्नान के दौरान मची भगदड़ में 52 लोगों को काल का ग्रास बनना पड़ा। 3 फरवरी 1954 को इलाहाबाद कुंभ मेले में भगदड़ मचने से लगभग 800 लोगों की जान गयी। इसी तरह झारखांड राज्य के देवघर में ठाकुर अनुकूल चंद की 125 वीं जयंती पर दो दिवसीय सत्संग में मची भगदड़ में कई श्रद्धालुओं को जान से हाथ धोना पड़ा। गत वर्ष पहले उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी में जय गुरुदेव संस्था की ओर से निकाली गयी शोभा यात्रा में राजघाट पुल पर मची भगदड़ में 25 से अधिक लोगों की दर्दनाक मौत हुई।
इन सभी धार्मिक स्थलों पर हुए हादसे के लिए पूर्ण रूप से शासन-प्रशासन, मंदिर प्रबंधन तंत्र और श्रद्धालुओं की अनुशासनहीनता ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहा है। लेकिन हैरानी की बात यह कि हर हादसे में शासन-प्रशासन और मंदिर प्रबंधतंत्र अपनी गलतियां स्वीकारने के बजाए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराता नजर आता है। नतीजतन लापरवाही के लिए दोषी और जिम्मेदार लोग आसानी से बच निकलने में कामयाब होते हैं। सच तो यह है कि जब तक राज्य प्रशासन, मंदिर प्रबंधनतंत्र और धार्मिक उत्सवों के आयोजकगण अपनी महती जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन नहीं करेंगे तब तक इस तरह के हादसे होते रहेंगे। हादसों के उपरांत अक्सर राज्य सरकारों और आयोजकों द्वारा भरोसा दिया जाता है कि भविष्य में ऐसे हादसे पुन: नहीं होंगे। लेकिन इस भरोसे के बावजूद भी हादसे टाले नहीं टलते। सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्यों?
क्या राज्य सरकारें और आयोजकगण हादसों को लेकर गंभीर और संवेदनशील नहीं होते हैं? या यह समझा जाए कि हादसों के लिए जिम्मेदार तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई न होना है? गौर करें तो ये दोनों ही बातें सच हैं। अगर सरकारी अमला, मंदिर प्रबंधनतंत्र और आयोजकगण अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वहन करें तो इस तरह के हादसों की पुनरावृत्ति नहीं होगी। ध्यान देना होगा कि देश में बहुतेरे मंदिर हैं जहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। इन सिानों पर सुरक्षा और संभावित हादसों को टालने का पूरा इंतजाम होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर मां वैष्णों देवी के मंदिर की ही बात करें तो यहां आम दिनों में 25 से 30 हजार श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। नवरात्र एवं अन्य पुनीत अवसरों पर यह भीड़ लाखों तक पहुंच जाती है। इसी तरह असम के कामख्या मंदिर में हर रोज 5 हजार, अजमेर शरीफ में 15 हजार, तिरुपति के बालाजी मंदिर में 80 हजार और स्वर्ण मंदिर अमृतसर में तकरीबन एक लाख श्रद्धालुगण आते हैं।
उचित होगा कि इन धार्मिक स्थानों पर दर्शन कराने की समुचित व्यवस्था हो और सुरक्षा बलों की उपस्थिति हो। भीड़ के बेहतर प्रबंधन के लिए बैरीकेड की समुचित व्यवस्था के साथ-साथ प्रवेश व निकास के लिए अलग-अलग मार्ग हो। रास्ते में श्रद्धालुओं के आराम की पर्याप्त व्यवस्था के साथ-साथ लोगों पर नजर रखने के लिए सेवादार और राज्य का खुफिया तंत्र मजबूत हो। क्या उचित नहीं होगा कि देश के सभी मंदिर इस तरह की व्यवस्था से लैस हों? लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है यह हैरान करने वाला है। आज जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकारें, स्थानीय प्रशासन, मंदिर प्रबंधनतंत्र और श्रद्धलुगण सभी अपनी जिम्मेदारियों को समझें। भारत विभिन्न धर्मों, संप्रदायों वाला एक महान आस्थावान देश है। यहां पर वर्ष भर धार्मिक आयोजनों का सिलसिला चलता रहता है। ऐसे में श्रद्धालुओं की सुरक्षा शासन-प्रशासन और मंदिर प्रबंधन की शीर्ष प्राथमिकता में होना चाहिए।