करवा चौथ नारी को शक्ति की अवतारिणी के रूप में महामंडित करने का व्रत है और पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में यह संदेश लेकर आता है कि भारतीय नारी के लिए उनका पति परमेश्वर का अवतार होता है और उन पर यदि कोई संकट आ जाए तो उनके जीवन की रक्षा के लिए पतिव्रता स्त्री यमराज से भी उनके प्राण वापस ला सकती है। नर नारायण और नारी नारायणी की अवतार होती हैं और यही करवा चौथ का धार्मिक दर्शन सामाजिक संस्कार और पारिवारिक परम्परा भी है जो सनातन काल से चली आ रही है।
हिंदू धर्म में विवाहिता स्त्रियों के द्वारा अपने पति की लंबी उम्र, आरोग्य एवं अखंड सुहाग के लिए Karva Chauth का व्रत किया जाता है। यह कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। सुहागिन स्त्रियों के द्वारा करवा चौथ का व्रत मंगलकारी तथा कष्टविनाशक भगवान श्रीगणेशजी की पूजा से जुड़ा हुआ है। करवा चौथ के व्रत को करक चतुर्थी भी कहते हैं। मान्यता यह है कि इस व्रत के पूजन से स्त्रियों के सुहाग की उम्र लम्बी होती है तथा उनका जीवन निष्कंटक रहता है। धन-दौलत की बेशुमार वृद्धि होती है तथा जीवन में कोई कष्ट नहीं रह जाता है, दाम्पत्य जीवन सुखमय तथा दीघार्यु होता है। इस अवसर पर दिन भर उपवास रखने के बाद रात में चन्द्रमा के दर्शन एवं उनको अर्घ्य देने के उपरांत पारण किया जाता है ।
वैसे इस व्रत को अविवाहित लड़कियां भी रखती हैं तथा इसके पीछे मान्यता है कि इस प्रकार अविवाहित लड़कियों के द्वारा किए गए करवा चौथ के अनुष्ठान से सुंदर, स्वस्थ एवं भाग्यशाली पति का सौभाग्य प्राप्त होता है।
कहते हैं कि किसी समय करवा नाम की एक पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ किसी नदी के किनारे एक गांव में रहती थी। एक समय की बात है कि उसका पति नदी में स्नान करने गया। इसी दौरान एक मगर ने उसका पैर पकड़ कर अपने वश में जकड़ लिया। अपने जीवन को संकट में देखकर वह करवा- करवा कहकर अपनी पत्नी को पुकारने लगा। अपने पति की करुणामयी आवाज को सुनकर करवा बेतहाशा अपने पति के पास भागती चली आई। उसने मगर को कच्चे धागे में बांध दिया और यमराज के पास पहुंच गई
वहां पहुंचकर उस पतिव्रता स्त्री ने यमराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, मेरे पति की रक्षा कीजिए और इस मगर को उसके पापों के लिए दंड दीजिए।’
किंतु यमराज बोले, ‘नहीं…नहीं कन्या यह संभव नहीं है! मगर का जीवन अभी भी शेष है। इसीलिए मैं अभी उसकी जीवनलीला खत्म नहीं कर सकता।’
क्रोधित करवा अधीर होते हुए बोली, ‘महाराज यदि आपने मेरे पति के जीवन की रक्षा नहीं की और मगर को उसके पाप के लिए दंडित नहीं किया तो मैं आपको श्राप दे दूंगी।’
करवा की इस पतिव्रत धर्म को देखकर यमराज काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने उसके पति को दीघार्यु होने का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि तभी से वह पतिव्रता स्त्री करवा इस धरती पर की सभी स्त्रियों के लिए अखंड सुहाग के व्रत की प्रतीक बन गई। ऐसा भी माना जाता है कि उसी दिन से इस व्रत का नाम करवा चौथ हो गया।
महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार द्रोपदी भी अपने पति अर्जुन के लिए तथा माता पार्वती ने अपने पति भोले शंकर के लिए इस व्रत का अनुष्ठानपूर्वक तथा धार्मिक भाव के साथ पालन किया था।
इस व्रत के दिन व्रतधारिणी विवाहित महिलाए दिन-भर निराहार रहकर भगवान श्रीगणेश की अगाध समर्पण भाव से अभिभूत होकर पूजा करती हैं। रात्रि में चंद्रोदय के बाद ही व्रत का समापन करती हैं। परंपरा के अनुसार व्रत के दिन घर के दीवाल को गोबर से लीपा जाता है, जिस पर श्रीगणेश जी, माता पार्वती एवं भगवान भोले शंकर तथा अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनायी जाती हैं। इस पर एक बरगद का पेड़ तथा एक मानवाकृति भी बनाई जाती है। इस मानवाकृति के हाथ में एक छलनी भी होता है। दीवार पर उगते हुए चांद की प्रतिमा भी बनाई जाती है।
जिस दीवार पर ये सब प्रतिमाएं बनार्इं जाती हैं, उनके नीचे दो करवों में जल भरकर रखा जाता है। करवे मूल रूप से तांबा, पीतल या मिट्टी से निर्मित होते हैं। करवे के गले में कलावा लपेटा जाता है तथा इस पर सिंदूर से पांच जगह टेक किया जाता है। करवे की टोटी में सरई नाम के घास की सिंक लगाई जाती है, जिसे सौभाग्य का द्योतक माना जाता है। करवे के ऊपर कटोरा रखा जाता है जो चावल अर्थात अच्छत तथा सुपारी से भरा होता है।
इस अवसर पर चावल के आटे, घी एवं शक्कर को मिलाकर लड्डू बनाया जाता है, जिसे शकरपिंडी भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त सिंघाड़ा, केला, नारंगी, गन्ना तथा मौसम के अन्य फलों के साथ भी इस व्रत में आराध्य देव की पूजा की जाती है। करवा व्रत की कथा का व्रतधारिणी मनोयोगपूर्वक तथा भक्ति भाव से श्रवण करती हैं तथा अपने सुहाग की लंबी उम्र की प्रार्थना करती हैं। पूजा के इसी क्रम में करवों का स्थान भी अदला-बदला जाता है, तथा बांयी ओर के करवे को दांयी ओर तथा दांयी ओर के करवे को बांयी ओर बदलते हैं। इसे करवा फेरना भी कहते हैं। इस प्रकार श्री गणेशजी के पूजन से व्रतधारिणी अपने मनोवांछित कामनाओं के साकार होने की प्रार्थना करती हैं।
Karva Chauth की कथा का श्रवण करने के उपरान्त चंद्रोदय होने पर घी के दीप जलाकर चंद्रदेव को अर्घ्य अर्पण किया जाता है। ॐ चन्द्राय नम: के मंत्र का जाप करते हुए चंद्रदेव का अर्घ्य किया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि चंद्रदेव के अर्घ्य के बाद व्रतधारिणी सुहागिनें अपने पतियों को उदित चन्द्रमा के सामने खड़ी होकर छलनी से देखती हैं तथा उनके स्वस्थ एवं चिरंजीवी जीवन की कामना करती हैं।
करवा चौथ नारी को शक्ति की अवतारिणी के रूप में महामंडित करने का व्रत है और पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में यह संदेश लेकर आता है कि भारतीय नारी के लिए उनका पति परमेश्वर का अवतार होता है और उन पर यदि कोई संकट आ जाए तो उनके जीवन की रक्षा के लिए पतिव्रता स्त्री यमराज से भी उनके प्राण वापस ला सकती है। नर नारायण और नारी नारायणी की अवतार होती हैं और यही करवा चौथ का धार्मिक दर्शन सामाजिक संस्कार और पारिवारिक परम्परा भी है जो सनातन काल से चली आ रही है।
-श्री प्रकाश शर्मा
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