Friday, April 19, 2024
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सवालों से कतराने की कला

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Samvad 12


Kishan Partap Singh 2प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को लेकर चली चर्चा का जवाब देते हुए सोमवार को लोकसभा और मंगलवार को राज्यसभा में जो कुछ कहा, उसे और जो भी कहा जाए, देशवासियों के दु:ख-दर्द से जुड़े उन सवालों का जवाब नहीं कहा जा सकता, जो चर्चा के दौरान विपक्षी दलों के नेताओं ने उठाये थे। इसके उलट प्रधानमंत्री ने सारे सवालों से कतराकर निकल जाने के लिए जिस तरह कांग्रेस को कोसने की अपनी पुरानी रणनीति पर एक बार फिरर अमल किया, उससे कई नए और कहीं ज्यादा जटिल प्रश्न उठ खड़े हुए हैं, जो तुरंत उत्तर की मांग करते हैं।
इन सवालों में सबसे बड़ा तो निस्संदेह यही है कि देशवासियों ने कोई आठ साल पहले कांग्रेस को बेदखलकर उनकी सरकार को इसलिए चुना था कि वे उन्हें कांग्रेसकाल की विडम्बनाओं से निजात दिलाएंगे या इसलिए कि जब भी अहसास होगा कि उनके राज में हो रही देश की दुर्दशा ने कांग्रेसकाल को बुरी तरह मात दे डाली है, वे कांग्रेस के गुनाह गिनाने लग जाएंगे और उनकी आड़ लेकर अपने गिरेबान में झांकने या हालात को बदलने कौन कहे, स्वीकारने से ही इनकार कर देंगे?
इसी से जुड़ा हुआ एक और सवाल है कि देशवासी समझते कि प्रधानमंत्री की सरकार उन्हें भेंड़ समझकर ‘जहां भी जायेगी, मूड़ी ही जायेगी’ के हालात में डाल देगी, साथ ही मूंड़ने में ऐसी बेदिली बरतेगी कि मूंड़ने को सही ठहराने के लिए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक की ‘शहादतें’ देने लगेगी, तो कौन कह सकता है कि वे इस सवाल से नहीं गुजरते कि फिर पं. नेहरू की पार्टी ही क्या बुरी है-भारतीय जनता पार्टी या नरेन्द्र मोदी में कोई सुरखाब के पर तो नहीं लगे हुए हैं?

यों, सीधे और बेलाग-लपेट पूछना चाहें तो सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कितने और वर्षों तक सत्ता-सुख उठा लेने के बाद  ‘मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू’ की अपनी वह सहूलियत छोड़ना चाहेंगे, जिसके तहत वे जिन कामों को अच्छा समझते हैं, उनका श्रेय अपनी झोली में डाल लेते हैं और सारे बुरे कामों की तोहमत कांग्रेस पर लगा देते हैं? फिर जब मन होता है, कह देते हैं कि सत्तर साल में तो कुछ हुआ ही नहीं। क्या वे समझते हैं कि देशवासी अनंतकाल तक उनकी मनमानियों को यह देखकर बरदाश्त करते रहेंगे कि वे कांग्रेस को जब भी कोसते हैं जी भरकर कोसते हैं? आखिरकार एक दिन तो वे समझ ही जायेंगे कि प्रधानमंत्री क्यों अपने अहंकार को अहंकार ही नहीं समझते, जबकि दावा करते हैं कि अनेक चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस का अहंकार नहीं जाता?

फिर कांग्रेस का अहंकार नहीं जाता तो यह कांग्रेसियों की चिंता का विषय है या देश की? और प्रधानमंत्री कांग्रेस के प्रति जवाबदेह हैं या देशवासियों के? देशवासियों के प्रति जवाबदेह हैं तो उन्हें यह क्यों नहीं बताते कि कांग्रेस कितनी भी बुरी रही हो, सत्ता से बेदखल करने के अलावा देशवासी कांग्रेस को और कौन-सी सजा दे सकते हैं? इस सजा के बावजूद वह इतनी शक्तिशाली बनी हुई है कि प्रधानमंत्री अपना कोई भी भाषण उसकी चर्चा किए बगैर पूरा नहीं कर पाते, तो देशवासी भला क्या कर सकते हैं? खासकर जब प्रधानमंत्री अपने कांग्रेसभक्त भारत के पुराने आह्वान और देश की समस्याओं की ओर से नजरें फेर कर परेशान है  कि कांग्रेस अगले सौ साल तक सत्ता में नहीं आना चाहती?

वह नहीं आना चाहती तो न आए, इसमें देश का क्या जाता है, लेकिन प्रधानमंत्री इधर-उधर की बातें करने के बजाय यह नहीं बताते कि देश के जिस कारवां को उन्होंने अच्छे दिनों की ओर ले जाने का वायदा किया था, अपनी जवाबदेही से बचने के लिए उसे कांग्रेस की लूट के किस्सों में भरमाये रखना चाहते है  तो क्या उन्हें पता है कि देश का कितना नुकसान कर रहे हैं? वे क्यों नहीं समझते कि उनके द्वारा बेवजह कांग्रेस को कोसने से सिर्फ यह पता चलता है कि उनकी और उनकी जमात की देश व समाज के आज के प्रश्नों को अतीत की ओर ले जाकर वर्तमान व भविष्य की ओर पीठ कर लेने की बीमारी लगातार लाइलाज होती जा रही है, प्रश्नों का समाधान नहीं मिलता।

हद तो यह कि देशवासियों को भरमाये रखने के लिए वे अर्धसत्यों व असत्यों का सहारा लेने से भी परहेज नहीं कर रहे। इसके चलते जहां निष्पक्ष पे्रक्षकों को उनका भाषण ‘प्रधानमंत्री खूब झूठ बोलो योजना’ पर अमल जैसा लगता है, वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के इस सवाल का कोई जवाब नजर नहीं आता कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में उस कोरोना को क्यों कुरेदा, जिसे जनता खुद भूल चुकी थी? उनकी सरकार ने उस दौरान ऐसा क्या शानदार किया, जिसका श्रेय वे लेना चाहते हैं? वे कोरोनाकाल में अस्सी करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराने के लिए खुद अपनी पीठ ठोंकते नहीं थकते, जबकि दुनिया के कई देशों में नौकरियाँ गंवाने वालों और उनके परिजनों को कोरोना के समय हजार-हजार डॉलर मिले-एक-एक परिवार को कई महीनों तक कई हजार डॉलर।

लेकिन भारत में जिन लोगों की नौकरी गई या जिनके बच्चों के नाम स्कूल से कट गए, उनके लिए सरकार ने क्या किया? क्या कांग्रेस ने आगे बढकर सरकार को उनके लिए कुछ करने से रोक दिया था? फिर क्या बढ़ती जाती गैरबराबरी के सवाल को प्रधानमंत्री के इस कुतर्क से सही ठहराया जा सकता है कि सरकार लाखों रुपयों से गरीबों के घर बनवाकर उन्हें लखपती बना रही है? क्या इससे आत्मनिर्भर भारत के उनके नारे का यह कड़वा सच भी पता नहीं चलता कि देश के गरीब कतई आत्मनिर्भर नहीं बन पा रहे और सरकारी राशन व मदद पर जैसे-तैसे गुजर-बसर को अभिशप्त हैं?
एक पत्रकार ने इसे लेकर अच्छा तंज किया है कि किसी को आरटीआई लगाना चाहिए कि उन दिनों कोंग्रेसीओ को बंद ट्रेनों के टिकट कौन बेच रहा था? किन तारीखों को किन ट्रेनों के लिए उन्हें कितने टिकट बेचे गए? वैसे बेहतर हो कि प्रधानमंत्री के बयान के समर्थन में रेलमंत्रालय खुद ही इसके सारे डिटेल जारी कर दे। एक अन्य पत्रकार ने यह भी लिखा है कि प्रधानमंत्री के इस कुतर्क से तो अभिनेता सोनू सूद भी कुछ कम गुनहगार नहीं, जिन्होंने उन दिनों बेबस प्रवासी मजबूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए बसों की व्यवस्था और रेल टिकटों का इंतजाम किया था।

अंत में, चूंकि हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री ने अपने आठ सालों में सवालों के सीधे जवाब न देने की जो परम्परा विकसित की है, वह उन्हें इनमें से किसी भी सवाल का जवाब नहीं देने देगी। इसलिए एक कवि के इस कथन से अपनी बात खत्म करते हैं कि दरअसल, जो कांग्रेस अगले सौ साल तक सत्ता में आने को तैयार नहीं है, उसके भूत ने प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की मति हर ली है, इसलिए जवाबों के नाम पर दोनों अंट-शंट बोलते ही नजर आते हैं। संसद में भी और उसके बाहर भी

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