चार दिसम्बर हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण तिथि है-अलबत्ता उपेक्षित और तिरस्कृत। कोलकाता से प्रकाशित हिंदी का पहला समाचार पत्र ‘उदंतमार्तंड’ 1827 में इसी दिन असमय ही ‘अस्ताचल जाने’ को विवश हुआ था। उसे महज 19 महीनों की उम्र नसीब हुई थी क्योंकि वह जिन हिंदुस्तानियों के भविष्य की चिंता करता था, तब उनमें इतनी भी जागरूकता नहीं थी कि वह उसके बूते पल-बढ़ सकता। यहां गौरतलब है कि इसके बावजूद उसे अपने पत्रकारीय सिद्धांतों व सरोकारों से समझौता कुबूल नहीं था। उनमें निष्ठा रखते हुए बन्द हो जाना कुबूल था, लेकिन हिंदुस्तानियों की दुश्मन गोरी सरकार का शुभचिंतक बनकर उसकी रियायतों के दम पर लम्बी उम्र पाना गवारा नहीं था। हिंदी के पत्रपत्रिकाओं के लिहाज से आज, उदंतमार्तंड के अवसान के बाद की स्थिति पर गौर करें तो भी खालिस जन जागरूकता के बूते पत्रों का प्रकाशन बेहद टेढ़ी खीर बना हुआ है। ऐसे में ‘उदंतमार्तंड’ और उसके सम्पादक युगलकिशोर शुक्ल का बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष और कर्तव्यपालन का मार्ग न छोड़ना उनकी प्रेरणा हो सकता है। प्रसंगवश, उदंतमार्तंड से अरसा पहले, 1780 की 29 जनवरी को आयरिश नागरिक जेम्स आगस्टस हिकी अंगे्रजी में ‘कल्कत्ता जनरल एडवर्टाइजर’ नामक पत्र शुरू कर चुके थे, जो भारतीय एशियायी उपमहाद्वीप का किसी भी भाषा का पहला समाचार पत्र था। फिर भी हिन्दी को अपने पहले समाचार-पत्र के लिए 1826 तक प्रतीक्षा करनी पड़ी तो इसके कारण समझे जा सकते हैं।
यह प्रतीक्षा और लंबी होती अगर 17 मई, 1788 को कानपुर में जन्मे युगलकिशोर शुक्ल, कुछ अभिलेखों में जिनका नाम ‘जुगुलकिसोर सुकुल’ लिखा मिलता है, ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी के सिलसिले में कोलकाता नहीं जाते। संस्कृत, फारसी, अंगे्रजी और बंगला के अच्छे जानकार होने के नाते ‘बहुभाषज्ञ’ की छवि से मंडित युगल किशोर वहां सदर दीवानी अदालत में प्रोसीडिंग रीडरी यानी पेशकारी करते-करते अपनी कर्तव्य व संघर्षनिष्ठा के फलस्वरूप वकील बन गये तो उन्होंने ‘हिंदी और हिंदी समाज’ कहें या ‘हिंदुस्तानियों’ के उत्थान के उद्देश्य से ‘उदंतमार्तंड’ नाम से हिंदी का एक साप्ताहिक निकालने की जुगत शुरू की। ढेर सारे पापड़ बेलने के बाद गवर्नरजनरल की ओर से उन्हें 19 फरवरी, 1826 को इसकी अनुमति मिली, जिसके बाद 30 मई, 1826 को उन्होंने कोलकाता के बड़ा बाजार के पास के 37, अमरतल्ला लेन, कोलूटोला से हर मंगलवार उसका प्रकाशन शुरू किया।
तब तक वारेन हेस्टिंग्ज की पत्नी की अनेकानेक हरकतों के आलोचक बनकर उनके कोप के शिकार हुए जेम्स आगस्टस हिकी ने जेल जाकर ‘देश का पहला उत्पीड़ित सम्पादक’ होने का श्रेय भी अपने नाम कर लिया था। उन दिनों कल्कत्ता में अंगे्रजी के बाद बंगला और उर्दू का प्रभुत्व था, जबकि हिंदी के ‘टाइप’ तक दुर्लभ थे और प्रेस आने के बाद शैक्षिक प्रकाशन शुरू हुए तो वे भी ज्यादातर बंगला और उर्दू में ही थे। युगलकिशोर शुक्ल ने ‘उदंतमार्तंड’ के लिए जिस छापेखाने की व्यवस्था की, वह कोलकाता में अपनी तरह का दूसरा ही था।
आठ फुलस्केप पृष्ठों वाले ‘उदंतमार्तंड’ के पहले अंक की पांच सौ प्रतियां छापी गर्इं थीं। जैसा कि बता आये हैं, नाना दुश्वारियों से दो-चार यह पत्र अपनी सिर्फ एक वर्षगांठ मना पाया था और इसके 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे। इसके कई कारण थे। एक तो हिंदी भाषी राज्यों से बहुत दूर होने के कारण उसके लिए ग्राहक या पाठक मिलने मुश्किल थे। दूसरे, मिल भी जाएं तो उसे उन तक पहुंचाने की समस्या थी। गोरी सरकार ने युगल किशोर को साप्ताहिक छापने का लाइसेंस तो दे दिया था, लेकिन बार-बार के अनुरोध के बावजूद डाक दरों में इतनी भी रियायत देने को तैयार नहीं हुई थी कि वे उसे थोड़े कम पैसे में अपने सुदूरवर्ती दुर्लभ पाठकों को भेज सकें। सरकार के किसी भी विभाग को उसकी एक प्रति भी खरीदना कुबूल नहीं था। यह तब था, जब उन गोरी सरकार ने मिशनरियों के पत्रों को डाक से प्रेषण आदि की अनेक सहूलियतें दे रखी थीं।
एक और बड़ी बाधा थी। उस वक्त तक हिंदी गद्य का रूप स्थिर करके उसे पत्रकारीय कर्म के अनुकूल बनाने वाला कोई मानकीकरण नहीं हुआ था। ऐसे में ‘उदंतमार्तंड’ की ‘मध्यदेशीय’ भाषा में खड़ी बोली और ब्रजभाषा का घालमेल-सा था। चार दिसम्बर, 1827 को प्रकाशित विदाई अंक में इसके अस्ताचल जाने की मार्मिक घोषणा करते हुए लिखा है-उदन्त मार्तण्ड की यात्रा-मिति पौष बदी १ भौम संवत १८८४ तारीख चार दिसम्बर, सन् १८२७। आज दिवस लौं उगि चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त, अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त।
लेकिन ‘उदंतमार्तंड’ के इस दुखांत से पंडित युगल किशोर शुक्ल द्वारा की गयी हिन्दी पत्रकारिता की उस सेवा का महत्व कम नहीं होता, जिसके मद्देनजर उन्हें ‘हिंदी का पहला पत्रकार’ कहा जाता है। इस सेवा के लिए उन्होंने महज अपनी आकांक्षा व आदर्शों के सहारे, घोर धनाभाव की स्थिति में भी अनेकानेक जोखिम उठाते व मान-अपमान सहते हुए बंगला पत्रों से प्रतिद्वंद्विता की। साथ हीे वृहत्तर हिन्दी समाज की उपेक्षा व उदासीनता भी झेली। यह उदासीनता ऐसी थी कि तत्कालीन कल्कत्ता में जो हिन्दी भाषी कार्यालयों व न्यायालयों में उच्च पदों पर तैनात थे या जिनकी अपने उद्योग व्यापार से अच्छी कमाई थी, वे भी हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की खरीद पर पैसे खर्च न करने की प्रवृत्ति के शिकार थे।