भारत में तो क्या ठीक तरह से तो गरीब को न्याय कहीं भी नहीं मिल पाता। फिर भी भारत की स्थिति ज्यादा खराब है। यहां की जेलों में 70 प्रतिशत लोग वे हैं, जिन पर अभी मुकदमा चलना बाकी है। साधारणतया इनमें से अधिकतर को बेल मिल जानी चाहिए, पर पैसा ना होने के कारण या तो जमानत की अर्जी ही नहीं कर पाते और या मिल जाती है तो पैसा नहीं भर पाते। यहां कई बार लोग इतने दिन बिना जुर्म साबित हुए जेल में बिता देते हैं जितने दिन की उस जुर्म के साबित होने पर सजा भी नहीं मिल सकती।
चाहे विजय माल्या हो या नीरव मोदी, पैसे के बल पर हजारों करोड़ का घपला करके भी बचे हुए हैं, पर गरीब किसान 10, 15, 20, 25 हजार के ऋण के लिए आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाता है। क्या यह भी एक प्रकार का अन्याय नहीं है! फिल्मों को देखकर न्यायव्यवस्था को श्रेष्ठ समझने की भूल न करें। एक बार किसी न्यायालय में घूमकर कुछ दिन तय करें, तब पता चल जाएगा। छोटे कर्मचारी खुलेआम घूस लेते हैं। बिना घूस कोई काम नही करते। वास्तविकता ये है कि ज्यूडिशरी ही एकमात्र ऐसा निकाय बचा है जिसमें 70 सालों में कोई भी प्रभावी सुधार नहीं हुआ है। ये निकाय परिवर्तन से बचा हुआ है। ईमानदारी की रोशनी कोर्ट की अंधेरी कालकोठरी में पहुंच ही नहीं पा रही है!
कुछ दिन पहले मैने एक प्रश्न का उत्तर दिया जिसमे पूछा गया था, क्या पैसा ही सब कुछ है? जिसका उत्तर मैने दिया था, जी हां आज के समय में पैसा ही सब कुछ है। अगर आपके पास पैसा नहीं है तो अपने भी आपका साथ छोड़ देंगे। आज के दौर में पैसों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। चोरी, डकैती, राहजनी, बेईमानी, धोखा सब किसके लिए करता सिर्फ पैसों के लिए करता है। आज हम भी आठ घंटे काम करते हैं, सर्दी गर्मी नहीं देखते हैं। किसके लिए करते हैं? सब पैसों के लिए करते हैं।
कहने का आशय सिर्फ इतना है जब हर छोटी सी छोटी चीज को पाने के लिए हमें पैसों की जरूरत होती है तो भाई न्याय तो बहुत बड़ी चीज है, वह आपको मुफ्त में कहां मिलने वाला है? वकील, जज और डॉक्टरों के पास हाड़ मांस वाला दिल नहीं होता है, उनके पास पाषाण युग वाला मजबूत पत्थर होता है। ये लोग अपने क्लाइंट्स में सिर्फ पैसा देखते हैं। इनके लिए सिर्फ पैसा ही सब कुछ है। इनकी नजर में इंसान की कोई कीमत नहीं है। जब आप कोर्ट में तारीख लेने जाते हैं तो वहां भी आपको मुंशी को 20, 50, 100 रुपए देने पड़ते हैं, तब आपको अगली तारीख मिलती है। अब सोचिए न्याय कैसे मिलता है?
स्वतंत्रता के पहले से लेकर अबतक हमारे देश में यही हाल है और आगे भी रहेगा। देश की जनता अफसर नेता सब एक जैसे ही हैं। यहां गरीब की सुन ने वाला कोई नहीं है। गरीबों के लिए कहीं भी न्याय नहीं होता। नियम कानून को मानने के लिए भी गरीब आम आदमी ही मजबूर होता है। पैसे वालों को कोई कानून नहीं चलता। पुलिस से लेकर वकील और जज तक सब पैसे वाले लोगों का ही साथ देते हैं और गरीब के साथ कोई कितना भी धक्का करले उसकी सुन ने वाला कोई नहीं। ये स्थिति कोई 5-10 साल से नहीं बल्कि कई दशक से है। और इसको बदलने वाला कोई नहीं है। इसलिये गरीबों के लिए इंसाफ की उम्मीद करना या उनकी हहाकार को कोई सुनेगा, इसकी उम्मीद करना बेमानी ही है। आप इंसाफ सिर्फ दो ही तरीके से ले सकते हो या तो आपके पास पैसा हो या फिर जालिम को खुद कानून हाथों में लेकर सबक सिखाने की हिम्मत हो। ये कड़वा है मगर सत्य है।
व्यवस्था को नए परिप्रेक्ष्य में गढ़ने की जरूरत है। देश में कुछ कानून भारतीय जनता के अनुरूप नहीं हैं। माननीय न्यायालय न्याय करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। अत्यधिक देरी से किया गया फैसला न्याय कम अन्याय ज्यादा लगता है। न्यायालयों के चक्कर में पड़कर लोग अपना सुख चैन खो देते हैं। न्यायालय में बैठे काला चोलाधारी शीघ्र फैसला करवाने के बजाय मामले को लंबा खींचने का हर हथकंडा अपनाते हैं। आज हालत ये है कि आम आदमी कोर्ट का नाम सुनकर ही डर जाता है। सच तो ये है कि कोर्ट कचहरी में भी अराजक तत्वों का बोलबाला है, जिन्हें भारत के कानून खिलौने जैसे लगते हैं। अब वक़्त आ गया है कि देश अपने कानूनों को नये सिरे से गढ़े और दिशाहीन देश विरोधी कानूनों की जगह देश हित में नये कानून बनाए।
यहां अभी भी पंच को परमेश्वर माना जाता है। जब भी दो व्यक्ति झगड़ते हैं तो एक कहता है कि में तुझे कोर्ट में देख लूंगा। तो दूसरा कहता है चल देख लेना। में जीतूंगा। ये सब क्या है? यही न कि दोनों को न्याय व्यवस्था पर विश्वास है। तभी तो भारत की अदालत में केस बढ़ते जा रहे है। यह सही है कि न्याय मिलने में समय लगता है। पैसे वालों की सुनवाई पहले होती है। यह समस्या व्यवस्था की है। न्यायधीशों की कमी की है। यानी यह सरकार की विफलता है जो न्यायधीशों के पद उचित मात्रा में नहीं बना रही है। अगर पद उचित मात्रा में होंगे तो न्यायधीश भी कार्य के बोझ तले तारीख नहीं देंगे। पैसे वाले लोग अपने प्रभाव से पहले न्याय के लिए सुनवाई की मांग नही करेंगे। न्यायधीश जब कुर्सी पर बैठता है तो उसे पता होता है कि लोग उस में भगवान का रूप देख कर न्याय की उम्मीद रखते हैं, वह उस उम्मीद नहीं टूटे, यही सोच रखते हैं। इसलिए कभी-कभी मानवीय रूप भी अपना लेते हैं।
लोगों को शिकायत हो सकती है कि आतंकवादी के लिए कोर्ट रात को भी सुनवाई कर लेता है। क्यों? क्योंकि न्यायधीश को पता है कि एक फांसी पर चढ़ने वाले कि याचिका नहीं सुनी गई तो यह गलत न हो जाए कि एक निर्दोष फांसी पर चढ़ गया। इसलिए वह यह दिखाता है कि मैंने न्याय के लिए देखें रात को भी सुनवाई की। अगर न्यायधीश भी आम आदमी की तरह भीड़ का हिस्सा बन गए तो न्याय कैसे कर पाएंगे। बाकी पहले सुनवाई की बात तो हम भी तो अपने चहेते रिश्तेदार डॉक्टर के पास लाइन तोड़ कर पहले दिखाने जाते हैं। क्या डॉक्टर कहता है कि लाइन से आओ।
समस्या न्याय की नहीं, समस्या न्यायधीशों की कमी की है। जिस की ओर सरकार उदासीन है। जनता भी बात-बात पर कोर्ट की तरफ भागती है। यहां तक कि सरकार भी बात-बात में कोर्ट की तरफ ही भागती है। 50 प्रतिशत केस में तो सरकार ही शिकायत कर्ता यानी वादी है। आपने मुंशी प्रेम चंद की पंच परमेश्वर कहानी सुनी होगी जिसमें अगलु और जुम्मन दोस्त होते हैं, लेकिन जैसे ही अगलु और फिर जुम्मन पंच की कुर्सी पर बैठते हैं, वे न्याय करने में अपने दोस्त की दोस्ती की परवाह न करके उचित फैसला देते हैं। यह तो मानवीय स्वभाव है कि हम फैसलों को अपने हित में आने पर जज को अच्छा और विपक्ष में आने पर जज को बुरा कह देते हैं, जबकि जज तो वही है। फिर कैसे वह हमारा दोस्त और दुश्मन होकर फैसला दे सकता है। वह अपने विवेक से फैसला देता है। पंच परमेश्वर की कहानी की तरह।