Thursday, May 22, 2025
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ओटीटी के आने से वीरान हुए सिनेमाघर

CINEWANI


सिनेमा विचारों के अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली माध्यम और समाज का च्दर्पणज् है। सिनेमा का उद्देश्य मनोरंजन के साथ कोई स्पष्ट सामाजिक संदेश देना, उसका तत्कालीन समय के यथार्थ से घनिष्ट संबंध अवश्य होना चाहिए। अगर देखा जाए तो मुख्यधारा की सिनेमा हो या सामानांतर सिनेमा यदि अपने सामयिक परिवेशों को ऊंगली पकड़कर नहीं चलेगा तो भटकाव निश्चित है। जहां समानांतर सिनेमा परिवर्तन व सामाजिक समस्याओं को उठाकर ठोस निष्कर्ष के साथ समाज को संदेश देता है या फिर मंथनार्थ एक प्रश्न छोड़ देता है। वही मुख्य धारा की सिनेमा मनोरंजन के उद्देश्य से हंसी-ठिठोली को मुख्य मुद्दा बनाकर समाज को गुदगुदाने का जिम्मा उठाता है।

1913 में दादा साहेब फाल्के द्वारा बनी पहली हरिशचंद्र से लेकर बोलती फिल्म आलम आरा, सावित्री, लंकादहन जैसी धार्मिक फिल्मों से होते हुए 1941 में बनी आदमी जिसमें वेश्यावृत्ति को मानवीयता के नजरिये से देखने का प्रयास किया गया, भारतीय सिनेमा के विकास का प्रथम पड़ाव रहा। दहेज (1950), दो बीघा जमीन, मदर इंडिया (1957) जैसी फिल्मों ने समाज की वास्तविकता को दर्शकों के समक्ष रखा। कल्पना व यथार्थ के बीच रचनात्मक स्थान तलाशता हुआ भारतीय सिनेमा निखरती रही।

आजादी के बाद पटकथा, दृश्यांकन, मूल्य, लोकरंग में रंगती बदलती सिनेमा में 1982 में बनी नदिया के पार समेकित सिनेमा का विकास स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होता है। बड़ी-बड़ी बैनर तले बनने वाली व्यवसायिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ जो वर्तमान तक गतिशील है। बाहुबली, के जी एफ, (चैप्टर-एक व दो), पुष्पा (भाग-एक व दो), आरआरआर, 777 चार्ली व हालिया प्रदर्शित फिल्म गदर-2 और जवान आदि फिल्मों को दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। कुछ फिल्मों के संगीत ने आॅस्कर तक का सफर तय किया।

दर्शकों का मोहभंग

आज प्राय: यह चर्चा सुनने को या पढ़ने को मिलती रहती है कि वर्तमान समय में सिनेमा से दर्शकों का मोहभंग हो चुका है। सवाल उठता है कि ये मुद्दा पब्लिक डिस्कोर्स का विषय क्यों बना आज के समय में बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्सों में दर्शकों की भीड़ न जुट पाना या चंद तर्कविहीन अनर्गल फूहड़ता पेश करती, उबाऊ व समय बर्बाद करने वाली फिल्मों के बुरी तरह पिट जाने से क्या ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित है।

उत्तर होगा कदापि नहीं क्योंकि साहित्य व सिनेमा में समाज को मनोरंजन करने के साथ-साथ शिक्षित व प्रेरित करने की अगाध शक्ति होती है। सिनेमा सामाजिक संदेश देने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने का कार्य तो करती ही है इसके अलावा लाखों युवाओं को रोजगार भी प्रदान करती है।

घर बैठे मनोरंजन

वैश्विक कोरोना आपदा जिसने करोड़ों जिंदगियों को निगलने के बाद बड़े-बड़े सिनेमाघरों से दर्शकों का मोहभंग होने की बात आंशिक स्वीकारात्मक अवश्य है। जबकि ओटीटी प्लेटफार्म घर बैठे दर्शकों का मोबाइल, लैपटॉप व टैब पर मनोरंजन उपलब्ध करा रही है। आज कम खर्च में इंटरनेट व मोबाइल की दुनिया में मनोरंजन के कई वैकल्पिक साधन खड़े कर दिये हैं। बेहतरीन वेब सीरीज व रही सही कसर यूट्यूब और इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने पूरी कर दिया है। इसलिए लोग सिनेमाघरों में जाकर सिनेमा देखने की जहमत उठाने से कतराने लगे हैं।

ओटीटी का बदलता स्वरूप

इन दिनों ओटीटी प्लेटफार्म का दायरा बढ़ता जा रहा है जहां शॉर्ट फिल्में, वेब सीरीज आदि में सामाजिक कहानियां कम और दर्शकों के बीच अश्लीलता, फूहड़ता व नग्नता परोसने वाली वेबसीरीज की अधिकता देखने को मिल रही है। फिल्मों में अश्लीलता और फूहड़ता ने इतना पैर पसार लिया है कि एक छत के नीचे पूरे परिवार के साथ फिल्म देखना मुश्किल है। दर्शकों को ऐसी फिल्मों से बचना होगा ताकि समाज और युवाओं पर इसका बुरा प्रभाव न पड़े।

जबकि ओटीटी प्लेटफार्म पर ऐसी फिल्मों को प्रदर्शित किया जाना चाहिए जिससे समाज और युवाओं को एक नई दिशा प्रदान करें। फिल्म निर्माता व निर्देशक को चाहिए कि निराशाजनक व भ्रमित करने वाली फिल्में से हटकर मजबूत पटकथा के ताने-बाने में बुनी हुई लोकजीवन को चित्रित करने वाली फिल्में बनाएं।

भारतीय सिनेमा हमेशा दर्शकों की महत्वाकांक्षा पर खरा उतरता रहा है और न तो यह अपने दर्शकों से अलग हुआ है। जरुरत है भारतीय सिनेमा को निखारने, माफिया गैंग से बचाकर रखने की। बालीवुड व भारतीय समाज हमेशा से अधकचरे, उद्देश्यहीन व भारतीय मूल्यों, समृद्ध साहित्य, विरासत, इतिहास व संस्कृति पर प्रहार करने वाली अपमानजनक फिल्मों को दरकिनार करता रहा है। इस तरह की अनेक फिल्मों का हश्र बाक्स आॅफिस पर क्या हुआ है यह किसी से छुपा नहीं है।

रूपेश कुमार


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