अमृतवाणी
एक बादशाह बड़ा ही न्यायप्रिय था। वह अपनी प्रजा के दुख-दर्द में शामिल होने की हरसंभव कोशिश करता था। बादशाह प्रजा का पूरा सम्मान करता था, इसलिए प्रजा भी उससे बहुत खुश थी और उसका बहुत आदर करती थी। एक दिन वह जंगल में शिकार के लिए जा रहा था।
रास्ते में उसने एक वृद्ध को एक छोटा-सा पौधा लगाते देखा। बादशाह ने उसके पास जाकर कहा, ‘यह आप किस चीज का पौधा लगा रहे हैं?’ वृद्ध ने धीमे स्वर में कहा, ‘बादशाह सलामत मैं अखरोट का पेड़ लगा रहा हूं।’ बादशाह ने हिसाब लगाया कि उसके बड़े होने और उस पर फल आने में कितना समय लगेगा। हिसाब लगाकर उसने अचरज से वृद्ध की ओर देखा। फिर बोला, ‘सुनो भाई, इस पौधे के बड़े होने और उस पर फल आने में कई साल लग जाएंगे, तब तक तुम तो रहोगे नहीं। इसलिए तुम इस पेड़ के अखरोट भी नहीं खा पाआगे, फिर क्यों पेड़ लगा रहे हो?’ वृद्ध ने बादशाह की ओर देखा। बादशाह की आंखों में मायूसी थी। वृद्ध व्यक्ति मुस्कुरा पड़ा और अपने काम में लग गया।
बादशाह ने उससे फिर पूछा, ‘भाई आपने जवाब नहीं दिया।’ उसने बादशाह से कहा, ‘आप सोच रहे होंगे कि मैं पागलपन का काम कर रहा हूं। जिस चीज से आदमी को फायदा नहीं पहुंचता, उस पर कौन मेहनत करता है, लेकिन यह भी सोचिए कि इस बूढ़े ने दूसरों की मेहनत का कितना फायदा उठाया है? दूसरों के लगाए पेड़ों के कितने फल अपनी जिंदगी में खाए हैं।
क्या उस कर्ज को उतारने के लिए मुझे कुछ नहीं करना चाहिए? क्या मुझे इस भावना से पेड़ नहीं लगाने चाहिए कि उनसे फल दूसरे लोग खा सकें?’ बूढ़े की यह बात सुनकर बादशाह लाजवाब हो गया। उसने उसी दिन इरादा किया कि वह भी प्रतिदिन एक पौधा लगाया करेगा, जिससे आने वाली नस्लें उसका फायदा उठाएं।