एक आश्रम में गुरुजी नित नई-नई शिक्षाएं देकर मार्गदर्शन करते थे। एक दिन उनके कुछ शिष्यों ने उनसे प्रश्न किया, गुरुवर! धन, कुटुंब और धर्म इन तीनों में से हमारा सच्चा साथी कौन है? गुरुजी ने कहा, इस प्रश्न का जवाब मैं तुम्हें जरूर दूंगा पहले मैं आप लोगों को एक कथा सुनाता हूं। एक व्यक्ति के तीन मित्र थे। सबसे प्रिय के साथ वह सबसे ज्यादा समय बिताता था। दूसरे के साथ उसकी प्रगाढ़ता थोड़ी कम थी। तीसरा मित्र जो बिल्कुल उपेक्षित था। एक बार वह व्यक्ति किसी मुसीबत में फंस गया। उसे राज दरबार में बुलाया गया। वह थोड़ा घबरा गया। मुसीबत के वक्त उसे अपने मित्रों की याद आई। वह अपने पहले मित्र के पास गया, लेकिन उसने उसके साथ जाने से मना कर दिया। वह दूसरे मित्र के पास गया और उससे साथ चलने असमर्थता जताई। निराश होकर वह तीसरे मित्र के पास पहुंचा। तीसरा मित्र मदद करने के लिए तैयार हो गया। राज दरबार में उसने अपने मित्र का पक्ष रखा और संकट से बचाकर वापस ले आया। तब गुरुजी ने तीनों मित्रों की प्रतीकात्मक अर्थ बताते हुए कहा, पहला मित्र धन है, जिसे सबसे परम प्रिय माना जाता है, लेकिन वह मृत्यु के बाद एक कदम भी साथ नहीं चलता। वही दूसरा मित्र आपका कुटुंब है, जो यथासंभव सहायता तो करता है, लेकिन उसका सहयोग शरीर रहने तक ही है। तीसरा मित्र धर्म है, जो इस लोक और परलोक दोनों में साथ होता है। जिसके प्रति हम हमेशा उपेक्षा का भाव रखते हैं। हमें अपने जीवन में सभी को महत्व देना चाहिए। हम धन को ही सब कुछ मान बैठे हैं और हमारे वास्तविक मित्र धर्म के लिए समय ही नहीं है। शिष्य, गुरु जी की शिक्षा का आशय समझ गए थे।