सुधांशु गुप्त |
कभी-कभी लगता है उपासना कहानियां लिखती नहीं, कहानियों की खोज करती है…ठीक वैसे ही जैसे कोई बूढ़ा समुद्र में मछलियों को खोजता है, अलग-अलग रंगों की, अलग-अलग आकारों की और अलग-अलग स्वाद की मछलियाँ। लगभग उसी तरह उपासना कहानियाँ खोजती हैं। कहानियों के लिए उनका समुद्र है-छोटी-छोटी गलियाँ, घर, सड़कें, कस्बे, गाँव, स्कूल, पेड़ पौधे, बारिश, बारिश में भीगते बच्चे…किशोर और जवानी की दहलीज पर खड़े युवा…कबूतर, बिल्लियाँ, छिपकली, चूहे, तितली…उपासना यहीं से कहानियां खोज लेती हैं। शायद लिखने से पहले भी वे नहीं जानतीं कि कहानी उन्हें कहां मिलेगी। शायद कहानी के लिए वे अपनी इस दुनिया में घूम भी नहीं रही हैं। वह बस घूम रही हैं, घूमने के लिए जीवन को करीब से देखने के लिए। यही वजह है कि उनकी कहानियों में कुछ भी पूर्व नियोजित नहीं है। सब कुछ इतना सहज, संजीदा और जीवंत है कि कहीं से भी कहानी नहीं लगता। 2014 में उनका पहला कहानी संग्रह आया था, एक जिन्दगी…एक स्क्रिप्ट भर। इसमें कुल छह कहानियां थीं। अब लगभग 9 साल बाद उनका दूसरा संग्रह आया है-दरिया बंदर कोट (हिन्दी युग्म)। अपने परिवेश और गति की तरह ही उपासना के लेखन में भी कहीं कोई जल्दबाजी या कहीं पहुंचने की ललक नहीं दिखाई देती। वह बस सफर पर चलते रहना चाहती हैं। उनके कस्बाई किरदार, ग्रामीण परिवेश, आंचलिक संवेदना, खूबसूरत नैरेटिव और गौर आयातित भाषा के साथ मौलक बिम्ब उन्हें युवा पीढ़ी का अहम लेखक बनाते हैं। लेकिन उपासना इस सबकी भी परवाह नहीं करती और सहज भाव से अपना काम करती हैं। संग्रह की एक कहानी है-पटकथा की सहनायिका। काफी हद तक यह कहानी पहले संग्रह की कहानी-एक जिन्दगी…एक स्क्रिप्ट भर का ही हिस्सा लगती है। पहली कहानी भी उपासना ने लगभग पटकथा शैली में लिखी थी। प्रेम विरोधी ग्रामीण समाज में उपासना ने गीता और शंकर के प्रेम को दर्ज किया था। लेकिन उपासना के यहां प्रेम इकहरा नहीं आता। गांव की दुनिया, बढ़ता बाजार, परिवार की गरीबी और बेरोजगारी सब साथ चलते हैं। एकदम सिंक्रोनाइज्ड रूप में। पटकथा की सहनायिका भी एक प्रेम कहानी है। इसमें गांव है, स्कूल है, स्कूल के अध्यापक हैं, फिल्में हैं, फिल्मी गीत हैं और युवा लड़कियों के प्रेम को लेकर सपने हैं। यहाँ पहली बार उपासना लाल अक्षरों में लिखे 143 शब्द का अर्थ बताती है…1 फॉर आई, 4फॉर लव. 3 फॉर यू। यानी आई लव यू। मुझे लगता है प्रेम की इस शब्दावली का प्रयोग युवा लगभग दो दशक पहले किया करते थे। संभव है इस प्रेम कहानी में उपासना ने प्रेम की उन स्मृतियों का ही इस्तेमाल किया हो। यह वह समय था जब नायक और नायिका को तो सब जानते थे या जान जाते थे, लेकिन सहनायिका को कोई नहीं जान पाता था। उपासना ने इस कहानी में, पटकथा में उस सहनायिका को चित्रित किया है, जो नायिका होना चाहती थी। बेरोजगारी को उपासना ‘सर्वाइवल’ कहानी में चित्रित करती हैं तो बड़ी उम्र के पुरुष से विवाह को स्त्री पीड़ा ‘उदास अगहन’ में दिखाई पड़ती है। लेकिन निरंतर ऐसा लगता है कि कहानी का मूल विषय केवल उपकथा की तरह आता है। सर्वाइवल कहानी की शुरूआत देखिए…’मैं भूगोल का छात्र हूं। भूगोल आपको यह बता सकता है कि ग्लोब पर बड़े-बड़े महाद्वीपों के बीच भारत कहाँ है। भारत के उत्तर में एक नन्हा दिल है दिल्ली। जब मैंने अपने सौरमंडल से भी आगे पढ़ा तो पाया कि इस विराट अंतरिक्ष में पृथ्वी कणमात्र है। कैसी अजीब बात है कि इतनी छोटी पृथ्वी पर अब तक मैं एक छोटी नौकरी नहीं पा सका हूं।’ यानी भूगोल यह नहीं बताता कि नौकरी कैसे पाई जाती है। अपने सर्वाइवल की यह लड़ाई आपको कबूतर और बिल्ली बताते हैं। कहानी में बेहद संजीदगी से बेरोजगारी की समस्या उपासना ने उकेरी है।
इसी तरह ‘उदास अगहन’ कहानी में वृंदा नाम की एक स्त्री की पीड़ा व्यक्त की गई है, जिसकी शादी देवत्त सिंह से कर दी गई थी। देवदत्त की पहली पत्नी फूलमती दो बच्चियों को जन्म देकर दुनिया से चली गई और वृंदा की प्रतिकार की इच्छा खत्म होती गई। देवदत्त जब लकवे का शिकार हो गए तो वृंदा का प्रतिकार बाहर आया और उसने किस तरह देवदत्त से बदला लिया यही कहानी है। लेकिन उपासना कहानी को मुख्यधारा में लाने से निरंतर बचाती रहती हैं और यही बात कहानी को खास और बड़ा बना देता है। ‘सायो के साये’ पति पत्नी के बीच पति की पहली प्रेमिका पर्स के रूप में मौजूद रहती है। किस तरह ये स्मृतियाँ विसर्जित होती हैं यही कहानी है। लेकिन उपासना कहानी में कहीं लाउड नहीं होती और सहजता से कहानी आगे बढ़ती रहती है। इस बात का भी पाठक को अंदाजा नहीं होता कि कहानी कहाँ जा रही है। ये टूल उपासना अपनी लगभग हर कहानी में इस्तेमाल करती हैं। ‘लड़की, शहर और गुम होती खामोशी’ कहानी दृश्यों में चलती है। मामा है, शहर है और एक लड़की है और गुम होती खामोशियाँ हैं। उपासना इस कहानी में भी कहानी खोजती दिखाई पड़ती हैं। ‘कैनवास की लकीरें’ कहानी एक स्त्री की स्वयं को तलाश करने की कहानी है। तो ‘भ्रम’ स्त्री स्वतंत्रता और सशक्तीकरण की वस्तुस्थिति को घर में दिखाने की कोशिश है। घर का मुखिया यह भ्रम बनाए रखना चाहता है कि उसकी पुत्रवधु सशक्त हो गई है। उपासना अपनी कहानियों के लिए विषय आयात नहीं करती, ठीक उसी तरह जिस तरह वे भाषा आयात नहीं करती। उनके विषय गांव, कस्बे, शहर, तकनालॉजी, घर-परिवार, स्कूल से बड़ी सहजता से आते हैं। जब तक वे ऐसा करती रहेंगी, उनकी कहानियाँ उनके लिए जगह बनाती रहेंगी। अनभ्यास का नियम उपासना की कहानियों पर पूरी तरह लागू होता है। उपासना को कहानी में अभ्यास नहीं अनभ्यास की जरूरत है। यह अनभ्यास ही उन्हें सबसे अलग बनाएगा। भाषा और परिवेश का जो सम्मोहन पहले कहानी संग्रह एक जिन्दगी…एक स्क्रिप्ट भर की छह कहानियों से शुरू हुआ था, वह दरिया बंदर कोट में और गहरा हुआ है। अगर उपासना कहानी के इसी रास्ते पर चलती रहीं तो निश्चित रूप से यह बात कही जा सकती है कि वे भविष्य में और भी अधिक बेहतर कहानीकार के रूप में उभरेंगी। उन्हें बस इतना सा ध्यान रखना है कि कहानियां तय विषयों पर लिखने से बचा जाए और उन्हीं विषयों पर कहानियाँ लिखी जाए, जो उनके भीतर से आते हैं। उपासना भीतरी दुनिया को दर्ज करने वाली ऐसी कथाकार हैं, जिसे देख पढ़कर आप बाहरी दुनिया को देख जान सकते हैं।