जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे है, वैसे-वैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति का घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और गुर्जर बिरादरी जो पिछड़ा वर्ग से आती है, जिनका कृषि संसाधनों पर लगभग 30 से 40 फीसदी तक कब्जा है। बीजेपी ने किसानों के मसीहा कहा जाने वाले एवं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देकर जो कार्ड खेला है, उससे पश्चिमी यूपी का राजनीतिक समीकरण अचानक से बदल गया है। लेकिन चौ. चरण सिंह के पौत्र एवं राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष जयंत चौधरी के वोटरों को खुश करने के लिए बीजेपी ने जो चला चली है शायद यह उनकी समझ से आगे की सोच है। क्योंकि बीजेपी जिस तरीके से भारत रत्न सम्मान की आड़ में वोट बैंक को साधने की राजनीति कर रही है उसको समझ पाना आम जनता की समझ भी से बाहर है। बीजेपी इस वक्त तीसरी बार सत्ता में आने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। चाहे उसे अपने विरोधी दलों से ही हाथ ही क्यों न मिलना पड़े। इस बार का लोकसभा चुनाव विकास की राजनीति का नहीं, बल्कि धार्मिक राजनीति की आड़ में लड़ा जाना है, जिसके केंद्र में हिंदुत्व, धार्मिक मुद्दे और राष्ट्रवाद सबसे पहले होगा। दलित, अल्पसंख्यकों और सामाजिक उत्थान के लिए किए जाने वाले इस सरकार के वादे हवा हवाई साबित होंगे। क्योंकि इस चुनाव में सिर्फ धर्म का खौफ दिखाकर और फ्री राशन के नाम पर वोट मांगा जाएगा। यही कारण है कि यह चुनाव मूलभूत मुद्दों की जगह सिर्फ और सिर्फ धर्म पर केन्द्रित होगा।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के नेता जयंत चौधरी का अब बीजेपी में जाना तय हो चुका है। एनडीए गठबंधन से पहले उन्होंने ‘इंडिया’ गठबंधन में रहकर किसान आंदोलन के दौरान किसानों के हक और अधिकार की बात जिस तरीके से उठाई थी, वह सीधे तौर पर भाजपा पर हमला था। लेकिन अचानक से जयंत का झुकाव, चौधरी चरण सिंह को दिए गए ‘भारत रत्न’ सम्मान के आसरे जाट समुदाय के सौदे का प्रतीक बन गया है। वर्ष 2020 में 11 महीने तक किसान आंदोलन में जिन किसानों ने सत्ता का मुकाबला करके अपनी कुर्बानी दी उनके बलिदान को कोई कैसे भूल सकता हैं? क्या चौधरी चरण सिंह को मिला भारत रत्न किसानों के बलिदान से ज्यादा है। लेकिन जयंत चौधरी ने किसानों के बलिदान को भारत रत्न की आड़ में एक ही झटके में भुला दिया। सत्ता का सुख अगर किसानों के बलिदान से प्यारा है, तो जयंत चौधरी को इस सूबे के किसान कभी माफ नहीं करेंगे। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन को लेकर जिस तरह का पेंच फंसा था। उसका हल आपस में बैठकर निकाला जा सकता था। अगर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गठबंधन से चुनाव लड़ती, तो शायद जयंत चौधरी इस सूबे में और मजबूत नेता के तौर पर उभर सकते थे। लेकिन जयंत का यह लालच कहीं न कहीं किसान वोटरों पर गहरा असर डाल सकता है। अब ऐसे में सवाल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए सबसे भरोसेमंद पार्टी कौन हो सकती है? यह सवाल अभी बना हुआ है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस समय भीम आर्मी यानी आजाद समाज पार्टी जिस तरीके से अपनी नई राजनीतिक पारी खेलने को तैयार है। वह कहीं न कहीं दलित राजनीति को एक नए आयाम देने में मदद करेगी, तो इसीलिए समाजवादी पार्टी अगर आजाद समाज पार्टी पर अपनी नजर गड़ाए हुए है, तो पश्चिमी यूपी में आजाद समाज पार्टी एक बड़ा विकल्प बन सकती है।
इस वक़्त सपा के पास एक अच्छा मौके हैं अगर अखिलेश यादव वेस्ट यूपी में अपनी खोई हुई जमीन तलाशना चाहते है, तो चंद्रशेखर आजाद के साथ गठबंधन के रूप में एक मजबूत विकल्प बना सकते है। ये अलग बात है कि आजाद समाज पार्टी अभी तक कोई चुनाव नहीं जीत पाई है। इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक को साधना बेहद जरूरी है। अगर पिछले खतौली विधानसभा उपचुनाव को देखें तो बीजेपी को टक्कर देने में सपा, आरएलडी और आजाद समाज पार्टी ने यह सीट बीजेपी से एक ही झटके में छीन ली थी। लेकिन जयंत के बीजेपी में जाने की कवायद के चलते इस वक़्त सपा, आजाद समाज पार्टी पर नजर रखे है। लेकिन अखिलेश यादव इस बार कोई मौका छोड़ता नहीं चाहते है, ताकि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को टक्कर दे सके। पश्चिमी यूपी में दलित वोट बैंक कई मायनों में अहम माना जाता है। इसलिए समाजवादी पार्टी, आजाद समाज पार्टी से गठबंधन करके अगर पश्चिमी यूपी के दलित वोट बैंक को साधने में काययाब हो पाती है, तो सपा बीजेपी को टक्कर देने में कामयाब जरूर हो सकती है।
बहुजन समाज पार्टी का बिखराव और हर चुनाव में पार्टी की गिरती साख से दलित मतदाता कहीं न कहीं बहुत कंफ्यूज है कि आखिर वह जाए तो जाए कहां? यही असंतोष दलित वोटरों के बीच तमाम तरह के सवाल खड़ा कर रहा है, तो ऐसे में आजाद समाज पार्टी उनके लिए एक बड़ा विकल्प हो सकती है। लेकिन असपा बहुजन वैचारिकी को एक नई दिशा देने में चुनाव के जरिए दलित, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों को साधने में कितना कामयाब हो पाती है, यह देखना बाकी है। आज के समय में दलित राजनीति बहुत तेजी से बदल चुकी है। इसलिए समाजवादी पार्टी को आजाद समाज पार्टी से बहुत उम्मीदे है, क्योंकि आजाद समाज पार्टी, कांशीराम के विचारों को धरातल पर उतारने के लिए जमीं आसमां एक किए हुई है, जो देश के बहुजन समाज फिर से एक छत के नीचे लाना चाहती है।