इतिहास में ऐसे मौके शायद ही आते हैं, जब बेहद कुशलता से गढ़ी गई किसी नेता की छवि अचानक एक मामूली प्रसंग से दरक जाती है और वह अचानक बेहद कमजोर दिखने लगता है। डॉयशे वेल्ले जो जर्मन प्रसारणकर्ता संस्था है-के प्रमुख संपादक के एक अद्द ट्विट ने कुछ माह पहले यही काम किया। याद होगा कि जनाब मोदी यूरोप की यात्रा पर निकले थे, जब रूस ने यूक्रेन के खिलाफ जंग छेड़ी थी (मई 2022) और अपनी यात्रा का उनका पहला पड़ाव बर्लिन, जर्मनी था।
इस ट्विट में महज यही ऐलान किया गया था कि जर्मनी के चांसलर शोल्थ्ज और पीएम मोदी साझा प्रेस सम्मेलन करेंगे, दोनों के बीच हुए समझौतों का ऐलान किया जाएगा और हमारे मेहमान के आग्रह पर प्रेस सम्मेलन के अंत में ‘सवाल नहीं पूछे जाएंगे।’ जर्मनी ही नहीं, पश्चिम के पत्रकारों के लिए प्रेस सम्मेलन के बाद ‘सवाल न पूछने का निर्देश’ न केवल अभूतपूर्व था बल्कि अनपेक्षित था। निस्संदेह में पत्रकार सम्मेलन में किसी भी तरह की बाधा नहीं उत्पन्न हुई, मीडिया के लोगों ने केवल जजमान देश बल्कि मेहमान देश के कर्णधार की इच्छा का सम्मान किया, लेकिन इस पूरे प्रसंग ने कहे अनकहे भारत में प्रेस की आजादी की स्थिति को अचानक विश्व मीडिया के सामने बेपर्द किया। लोगों के लिए यह स्पष्ट था कि एक सौ तीस करोड़ लोगों के मुखिया-जो अपने देश को ‘जनतंत्र की मां’ कहलाता है, वह किस तरह मीडिया से संवाद को एक तरफा खामोश कर सकता है और यह कदम कितना अधिनायकवादी है। इसने इस बहस को भी नई हवा मिली कि किस तरह दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र रफता रफता चुनावी निरंकुशतंत्र में तब्दील हो रहा है।
वैसे वे सभी जो भारतीय सियासी मंजर पर नजदीकी निगाह रखते हैं, उनके लिए मीडिया से बचने और उससे दूरी बनाने का प्रधानमंत्री मोदी के निर्णय में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि विगत साढ़े आठ सालों से-जबसे मोदी प्रधानमंत्री बने हैं-यही रवायत चल पड़ी है। सभी उस प्रसंग से भी वाकिफ हैं, जब वर्ष 2019 में भाजपा के मुख्यालय पर हुई प्रेस वार्ता में पहली दफा मोदी दिखे थे और उन्होंने कुछ बात भी की थी-जिसे सरकार के करीबी चैनलों ने बाकायदा ‘ऐतिहासिक अवसर’ और मास्टरस्टोक घोषित किया था। जिसमें उन्होंने उन्हें पूछे जाने वाले हर प्रश्न के जवाब के लिए अमित शाह की तरफ इशारा किया था, जो उस वक्त पार्टी के अध्यक्ष थे। अपनी वाकपटुता के लिए काफी ताली बटोरने वाले मोदी ने मौन व्रत धारण करना मुनासिब समझा था।
इस प्रसंग से उपजी झेंप मिटाने के लिए फिर पार्टी की तरफ से यह ऐलान किया गया था कि वह प्रेस सम्मेलन पार्टी अध्यक्ष का ही था, जहां प्रधानमंत्री महज पहुंचे थे। इस संदर्भ में एक अग्रणी मीडिया प्रतिष्ठान की तरफ से प्रधानमंत्री कार्यालय के पास सूचना अधिकार के तहत यह आवेदन भी किया गया कि यह पता चल सके कि प्रधानमंत्री मोदी ने कितने साक्षात्कार दिए हैं और कितनी प्रेस कॉन्फ्रेंस की है, जिसे लेकर उसे बेहद अस्पष्ट सा जवाब मिला जिसका लुब्बेलुआब यही था कि चूंकि मीडिया के साथ प्रधानमंत्री का संवाद पूरी तरह से सुनियोजित भी होता है और अनियोजित भी होता है, जिसके चलते उसका रेकार्ड उपलब्ध नहीं है। अगर बारीकी से छानबीन करने की कोशिश करें तब यह पता भी चल सकता है कि प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने के बाद मीडिया से सीधे बात करने को-जहां पत्राकार उनसे सीधे सवाल कर सकें और वह भी जवाब दें-लेकर उनका जो रवैया रहा है, उसकी जड़ें शायद प्रधानमंत्री पद के पहले के मुख्यमंत्री पद काल के अपने अनुभव में हो सकती हैं, जहां उन्होंने शायद यही अनुभव किया कि ऐसी बातचीत में उनके लिए मुश्किलें हो सकती हैं। अग्रणी पत्राकार करण थापर को साथ उनका अधूरे में छोड़ दिया गया साक्षात्कार शायद इसी बात की ताईद करता दिखता था। इस साक्षात्कार में 2002 के दंगों को लेकर पत्रकार थापर ने पूछे सवालों को लेकर मोदी असहज हो गए थे और प्रेस सम्मेलन वहीं खत्म हो गया था।
शायद यह कहना मुनासिब होगा कि अपने मित्र चैनलों तक अपनी बात सीमित रखने या चुनिंदा पत्रकारों के साथ अपनी अंतर्किया सीमित रखने, यहां तक कि पत्रकारों के सीधे सवालों के प्रति बिल्कुल मौन बरतने आदि को अलग-अलग देखना ठीक नहीं है, इसे हम एक साथ जोड़ कर या उनकी एक नई मीडिया रणनीति के तौर पर देखना चाहिए। हम देख सकते हैं कि 2014 में सत्तारोहण के बाद मोदी का जोर अपने संदेशों को ट्विट, मन की बात जैसे रेडियो कार्यक्रमों या करीबी पत्रकारों जो दोस्ताना चैनलों में सक्रिय थे, उनके साथ पहले से तयशुदा प्रश्नों पर साक्षात्कारों तक मुख्यत: सीमित हो गया। वह परंपरा अब इतिहास हो गई, जब वजीरे आजम अपनी विदेश यात्रा पर अपने साथ ही पत्रकारों, संपादकों के एक दल को ले जाते थे, जिसे प्रधानमंत्री के साथ औपचारिक अनौपचारिक वार्तालाप का मौका मिलता था। ऐसे साक्षात्कार बाद में प्रकाशित भी होते थे।
तीन जनविरोधी कानूनों के खिलाफ किसानों का व्यापक जनांदोलन-जो हाल के समयों का सबसे बड़ा जनांदोलन था-जिसके चलते सरकार को उन कानूनों को वापस लेना पड़ा, उसने तो अपने खुद के ‘समानांतर मीडिया’ का भी निर्माण किया था, जिसने एक तरह से दरबारी पूंजीपतियों के वर्चस्ववाले मीडिया द्वारा आंदोलन को लेकर बनायी गलत छवि तोड़ने का लगातार काम किया।
इस प्रष्ठभूमि में हम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ जैसी अनोखी पहल को देख सकते हैं। अब एक माह पूरी कर चुकी इस यात्रा ने लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए एक नई जमीन तोड़ी है। किसी विश्लेषक ने बाकायदा हिसाब लगा कर बताया था कि पांच माह के अंतराल में कितने करोड़ भारतीयों तक न केवल इस यात्रा का संदेश पहुंचा होगा, बल्कि इनमें से कितने लोग किसी न किसी रूप मे इस यात्रा को करीब से देखें होंगे या शामिल होंगे।
अब विपक्ष के आलोचक भले मान न माने इस अनोखी पहल के केंद्र में राहुल गांधी की शख्सियत दिखती है, लोगों तक, युवाओं-युवतियों तक यहां तक कि बच्चों तक उनकी सीधी पहुंच और उनसे संवाद साधने में उन्हें मिली महारत आदि ने उनकी असली छवि मुखर होकर सामने आई है। विगत आठ सालों में उनकी छवि बिगाड़ने में हिंदुत्व कटटरपथियो ने जबदस्त मेहनत की है, करोड़ों रुपया उन्हें ‘पप्पू’ साबित करने में लगाया है, लेकिन यात्रा के जरिए लोगों से सीधी बातचीत ने उनकी इस गढ़ी हुई छवि की असलियत उजागर हुई है। यह अब हम सभी के सामने है कि प्रेस सम्मेलन में जब टेलीप्राम्टर अचानक बंद होता है तो अपनी वाकपटुता पर मुग्ध रहने वाले मोदी किस तरह किंकर्तव्य मूढ़ बैठे रह जाते हैं, जबकि धुआंधार बरसते पानी के बीच हजारों लोगों के बीच भाषण देती राहुल की छवि लोगों के बीच वायरल हो जाती है।