जहां एक तरफ विभिन्न राजनीतिक दल 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी शुरू कर रहे हैं, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हिंदी पट्टी के तीन विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करके अपने लिए मजबूत माहौल तैयार कर लिया है। भाजपा जानती है कि 2024 में विपक्ष के ।इंडिया’ गठबंधन को आगे बढ़ने से रोकने का एकमात्र तरीका कांग्रेस की सीटों को कुल मिलाकर दो अंक के आंकड़े तक सीमित रखना है। वहीं, कांग्रेस जानती है कि 2024 में ।इंडिया’ गठबंधन को सत्ता में कोई मौका दिलाने के लिए उसे पिछली बार की 52 सीटों से आगे बढ़कर 100 सीटों का आंकड़ा पार करना होगा। यह कहने की बात नहीं है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इस विपक्षी गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है। ।इंडिया’ गठबंधन को उम्मीद थी कि कांग्रेस इन राज्यों में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करेगी। 29 सीटों वाले मध्य प्रदेश में 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली और भाजपा को 28 सीटें। राजस्थान में कांग्रेस का पत्ता साफ था और भाजपा ने राज्य की 25 संसदीय सीटों में से 24 सीटें जीती थीं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को कुल 11 में से सिर्फ दो सीटें मिल सकी थीं और बाकी नौ सीटें भाजपा के हिस्से गई थीं।
इस तरह 2019 के लोकसभा चुनावों में इन तीन राज्यों में भाजपा का स्ट्राइक रेट 100 प्रतिशत के करीब था। कुछ उम्मीद थी कि कांग्रेस इससे बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। इसके अलावा, यह हमेशा माना जाता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ 10 साल की सत्ता विरोधी लहर के कारण भाजपा को तीन राज्यों में कम से कम 30-40 प्रतिशत सीटें गंवानी पड़ेंगी। और यह कोई हवाई बात नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता के चलते ही भाजपा अब भी 60 प्रतिशत सीटें बरकरार रखे हुए है। लेकिन विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस खेमे में पुनर्विचार होना चाहिए। आम चुनाव से ठीक छह महीने पहले भाजपा की निर्णायक जीत ने मोदी के लिए सकारात्मक माहौल तैयार कर दिया है। अगर कांग्रेस हिंदी पट्टी में इसकी सबसे बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार नहीं हुई तो भाजपा इसकी 100 प्रतिश सीटें बरकरार रख सकती है।
इस सब के बीच आशा की एकमात्र किरण यह है कि कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनावों, जब उसने तीनों राज्यों में बहुमत हासिल किया था, की तुलना में इन राज्यों में अपना वोट शेयर (राजस्थान में 0.5 प्रतिशत की बढ़त) बरकरार रखा है। भले ही कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनावों में इस वोट शेयर को बरकरार रखने में सक्षम हो, लेकिन उसके पास तीन राज्यों से 20 से अधिक सीटें जीतने का अच्छा मौका हो सकता है। लेकिन यह आसान नहीं होगा, क्योंकि लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर मजबूत होगा।
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का अंतर बहुत बड़ा था। राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा को 58-60 प्रतिशत वोट मिले जबकि कांग्रेस 34 प्रतिशत पर अटक गई थी। छत्तीसगढ़ में भाजपा को 50 प्रतिशत और कांग्रेस को 40 प्रतिशत वोट मिले। खासकर ओबीसी के बीच भाजपा को कांग्रेस पर भारी बढ़त मिली हुई है। कांग्रेस और भाजपा के बीच वोट शेयर के अंतर को काफी हद तक ओबीसी वोट,जिस पर मोदी का विशेष प्रभाव है, द्वारा समझा जा सकता है। इसके अलावा, जाति जनगणना की राजनीति पर फोकस के साथ कांग्रेस ने कथित ऊंची जाति के वोटों का मोह छोड़ दिया है।
क्या जाति जनगणना की राजनीति, जिस पर राहुल गांधी भरोसा कर रहे हैं, बिहार के अलावा अन्य हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस को मदद करेगी? हालांकि, विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के पास एससी/एसटी वोटों का काफी प्रभावशाली हिस्सा है, लेकिन किसी को नहीं पता कि लोकसभा चुनावों में इसका कितना हिस्सा मोदी के पास जा सकता है। नरेंद्र मोदी की सफलता के पीछे ओबीसी वोटों के एक हो जाने की अहम भूमिका रही है। यहां फिर से एक अहम सवाल यह है कि बिहार के बाहर के हिंदी भाषी राज्यों में जाति जनगणना कितना काम करेगी।
लोकसभा चुनाव करीब आने के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन नई राष्ट्रीय जाति जनगणना के आधार पर ‘मंडल 2.0’ के बारे में अपने दृष्टिकोण को कैसे आगे बढ़ाएगा? यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है जिससे हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस का भविष्य तय होगा, वहां, जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा के साथ है। हाल ही में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील मोदी ने तर्क दिया था कि नरेंद्र मोदी पहले से ही ओबीसी समुदाय के लिए पर्याप्त काम कर रहे हैं और उन्हें इसे साबित करने के लिए जाति जनगणना पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। इस बात में कुछ सच्चाई हो सकती है, कम से कम बिहार के बाहर।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों में जाति जनगणना की राजनीति ने कुछ खास नहीं किया। हालांकि, कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस जाति जनगणना पर ज्यादा निर्भर हुए बिना ओबीसी वोट बैंक का विस्तार करती दिख रही है। तेलंगाना में इसकी जीत के पीछे भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से शिफ्ट हुआ ओबीसी वोटों का अच्छा हिस्सा है। परंपरागत रूप से, कांग्रेस में कथित उच्च जाति के रेड्डी समुदाय का वर्चस्व था, लेकिन अब इसे ओबीसी, एससी, एसटी और मुसलमानों का भी समर्थन प्राप्त है। यह पुराना जातीय गठबंधन था, जो इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देखा गया था।
हालांकि, एक पहलू यह भी है कि दक्षिण में किसी राजनीतिक उपकरण के तौर पर जाति जनगणना को उठाने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि इनमें से कई राज्यों में सामाजिक सशक्तिकरण की राजनीति की जड़ें खासी गहरी हैं। इसके उलट, मंडल आयोग की रिपोर्ट के अमल के बाद उत्तर में पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण की राजनीति खड़ी हुई है। मंडल के खिलाफ भाजपा के हिंदुत्व अभियान ने व्यापक हिंदी भाषी क्षेत्र में ओबीसी के बड़े हिस्से को अलग कर दिया है। याद रखें, मंडल लामबंदी का मुकाबला करने के लिए संघ ने जानबूझकर ओबीसी समुदाय को राम मंदिर के आक्रामक अभियान में शामिल किया था। उत्तर में ओबीसी समुदाय के बड़े हिस्से का हिंदुत्व के साथ गठजोड़ बैठता है।
‘इंडिया’ गठबंधन की चुनौती इस क्षेत्र में ओबीसी वोट में सेंध लगाना है। क्या जाति जनगणना की राजनीति ऐसा कर पाएगी? अगर नहीं, तो ‘इंडिया’ गठबंधन के पास क्या कोई वैकल्पिक दृष्टिकोण है? इस बारे में जल्द ही कोई फैसला लेना होगा।
(द वायर से साभार)