- मेरठ परेड में 85 भारतीय सैनिकों का चर्बी लगे कारतूस चलाने से इन्कार करने और उनके कोर्ट मार्शल की घटना 24 अप्रैल 1857 से है जुड़ती
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: मेरठ से उठी पहली क्रांति की तिथि हालांकि 10 मई मानी जाती है, लेकिन इसकी आधारशिला अप्रैल 1857 के महीने में हुई कई महत्वपूर्ण घटनाएं रहीं, जिनमें मंगल पांडेय की बैरकपुर कलकत्ता में बगावत और शहादत सर्वोपति मानी जाती है। इसके उपरांत मेरठ परेड में 85 भारतीय सैनिकों का चर्बी लगे कारतूस चलाने से इन्कार करने और उनके कोर्ट मार्शल की घटना 24 अप्रैल 1857 से जुड़ती है। मई 1857 के पहले सप्ताह में कोर्ट मार्शल का ट्रायल होने के साथ सभी को सामूहिक रूप से सजा सुनाने की घटना ने आग में घी डालने का काम किया। काली पलटन के सैनिकों ने विद्रोह करते हुए विक्टोरिया पार्क में बनाई जेल पर हमला बोल दिया।
10 मई की शाम को ही इस जेल को तोड़कर 85 सैनिकों को आजाद करा दिया था। इसी के साथ पैदा हुई क्रांति की चिंगारी को हवा देकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ तूफान की शक्ल देने में मेरठ का योगदान अविस्मरणीय रहा है। मेरठ से उठी विद्रोह की यह चिंगारी कुछ दिन के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने दबाई जरूर, लेकिन क्रांतिकारियों की बदलती पीढ़ियों के बीच उनका जज्बा बरकरार रहा। राख के ढेर में अंदर ही अंदर सुलग रही चिंगारी ज्वाला का रूप धारण करती चली गई।
अंग्रेजों से अपने देश को आजाद कराने के लिए जिस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव 1857 में रखी गई, उसकी बुनियाद मंगल पांडे ने बैरकपुर कलकत्ता में एक अंग्रेज अफसर पर किए गए हमले के साथ रखी गई।
जिसे परवान चढ़ाते हुए मेरठ की काली पलटन ने गोरे अंग्रेजों के चेहरों का रंग सफेद कर दिया था। जिसका नतीजा 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के रूप में पूरी दुनिया ने देखा है। पहले स्वतंत्रता संग्राम की कुछ तिथियों को लेकर कुछ लोगों में भ्रम की स्थिति न रहे, इसको स्पष्ट करने के लिए 1857 की क्रांति के लिए उठी चिंगारी और घटनाक्रम को वर्ष के शुरुआती महीनों पर नजर डालना जरूरी है। मेरठ में अंग्रेजी सेना में सेवा दे रहे भारतीय सैनिकों के बीच विद्रोह की भावना पैदा करने का श्रेय मंगल पांडे के बलिदान को ही जाता है। इतिहासकारों के अनुसार मंगल पांडे का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा नामक गांव में 19 जुलाई 1827 को एक ब्राह्मण परिवार दिवाकर पांडे के घर हुआ था।
हांलाकि कुछ इतिहासकार इनका जन्म-स्थान फैजाबाद के गांव दुगवा रहीमपुर को मानते हैं। मंगल पांडे 1849 में 22 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हो गए। मंगल पांडेय एक ऐसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने 1857 में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वो ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल इंफेन्ट्री के सिपाही थे। 29 मार्च 1857 को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पांडे ने स्वाधीनता की आग में खुद को झोंकते हुए रेजीमेंट के एक अफसर पर हमला करके उसे घायल कर दिया। इस घटना के चलते छह अप्रैल 1857 को मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और आठ अप्रैल को फांसी दे दी गई।
मंगल पांडे को बैरकपुर में फांसी दिए जाने की खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई। मेरठ छावनी में मौजूद भारतीय सैनिकों के बीच इस घटना ने व्रिदोह की चिंगारी का काम किया। इसी दौरान एक नई बंदूक और उसमें लगने वाले कारतूसों में चर्बी का प्रयोग किए जाने की बात भी तेजी से फैलती चली गई। इतिहासकारों के शोध में कहा जाता है कि मेरठ कैंट क्षेत्र में जहां आज बाबा औघड़नाथ मंदिर है, उसके पास ही अंग्रेजी हुकूमत के भारतीय सैनिकों का बसेरा रहा है। मंदिर परिसर में आज भी वह कुआं संरक्षित है, जहां के पानी का प्रयोग भारतीय सैनिक किया करते थे। और कुएं के पास बैठकर अपना कुछ समय व्यतीत करते थे। इसी स्थान भारतीय सैनिकों ने पूजा पाठ के लिए एक मंदिर बनाया। अंग्रेज अफसर भारतीय सैनिकों के दस्ते को काली पलटन कहा करते थे।
इनके द्वारा बनाए गए मंदिर का नाम काली पलटन मंदिर भी अंग्रेजों की ही देन है। आज जहां ऐतिहासिक और भव्य बाबा औघड़नाथ मंदिर मौजूद है, यहां भारतीय सैनिकों के बीच स्वतंत्रता सेनानियों की आवाजाही सबसे ज्यादा रहती थी। कारतूसों को लेकर जो अफवाह परवान चढ़ी, इसी दौरान एक संत मंदिर परिसर में स्थित कुएं के पास आकर भारतीय सैनिकों से मिलते रहे। और अपने धर्म के विपरीत गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से खोलने के लिए उनकी गैरत को ललकारने का काम भी करते रहे। हालांकि पक्के तौर पर कुछ इतिहासकार इसकी पुष्टि नहीं करते, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वो संत आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ही थे।
फिर आया 23 अप्रैल 1857 का दिन, जब सिपाहियों को पैट्रन 1853 एनफील्ड बंदूक दी गर्इं, जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी, और पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लाई जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नई बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था। परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफील्ड बंदूक भरने के लिए कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी।
इस दौरान सिपाहियों के बीच अफवाह फैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनाई जाती है। 24 अप्रैल 1857 में सामूहिक परेड बुलाई गई और परेड के दौरान 85 भारतीय सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने के लिए दिया गया। लेकिन परेड में भी सैनिकों ने कारतूस का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। सैनिकों के चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल करने से इन्कार करने पर उन सभी का कोर्ट मार्शल कर दिया गया। मई छह, सात और आठ को कोर्ट मार्शल का ट्रायल हुआ, जिसमें 85 सैनिकों को नौ मई को सामूहिक कोर्ट मार्शल में सजा सुनाई गई।
और विक्टोरिया पार्क नई जेल में ले जाकर बेड़ियों और जंजीरों से जकड़कर बंद कर दिया था। इतिहास मेें गहन रुचि रखने वाले एडवोकेट गोपाल अग्रवाल विभिन्न जानकारियों के हवाले से बताते हैं कि इस मूवमेंट पर नगर वधुओं ने भी काली पलटन सैनिकों में क्रांति की चिंगारी भड़काने का काम किया। जिन्होंने कोर्ट मार्शल करके विक्टोरिया पार्क में बनाई गई अस्थायी जेल में 85 सैनिकों को बंद किए जाने के बावजूद काली पलटन के तमाशबीन बने रहने पर उनकी गैरत को ललकारा। यहां तक कहा गया कि सैनिक चूड़ियां पहनकर बैठ जाएं।
नगरवधुओं के इस कटाक्ष का सैनिकों पर गहरा असर हुआ, और उन्होंने विक्टोरिया पार्क जेल में बंद किए गए अपने साथियों को आजाद कराने की शपथ ली। फिर आया 10 मई 1857 का वह दिन, जिसे पहले स्वतंत्रता संग्राम के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया जाता रहेगा। काली पलटन के सैनिकों ने विद्रोह करते हुए विक्टोरिया पार्क में बनाई जेल पर हमला बोल दिया। 10 मई की शाम को ही इस जेल को तोड़कर 85 सैनिकों को आजाद करा दिया था। कुछ सैनिक तो रात में ही दिल्ली पहुंच गए थे और कुछ सैनिक 11 मई की सुबह यहां से भारतीय सैनिक दिल्ली के लिए रवाना हुए और दिल्ली पर कब्जा कर लिया था।
10 मई के दिन देखते ही देखते अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव साल 1857 में सबसे पहले मेरठ के सदर बाजार में भड़की, जो पूरे देश में फैल गई थी। दस मई 1857 में शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब अंग्रेजों के खिलाफ गुस्से से भरे लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे। और जहां उन्हें अंग्रेज सिपाही नजर आते, उन पर हमला किया जाने लगा। इस तरह बैरकपुर में 29 मार्च 1857 में मंगल पांडे द्वारा लगाई गई विद्रोह की यह चिंगारी करीब डेढ़ महीने बाद ही 10 मई 1857 को मेरठ की छावनी में बगावत के रूप में सामने आई।
जो देखते ही देखते पूरे उत्तर भारत में फैल गई, जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे। मंगल पांडेय द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ शुरू किया गया विद्रोह समूचे देश में आग की तरह फैला था। इस आग को बुझाने के लिए अंग्रेजों ने बहुत कोशिश की, लेकिन देश के हर नागरिक के अंदर विद्रोह की आग भड़क चुकी थी। उस समय करीब एक साल तक संघर्ष करने के बाद हालांकि अंग्रेजों ने पहले स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने का काम किया। लेकिन राख के ढेर में दबी चिंगारी समय के साथ एक ज्वाला बनती चली गई। जिसकी बदौलत 1947 में देश ने आजादी की किरणें लेकर आने वाले सूरज को देखने का गौरव हासिल किया।