Saturday, July 5, 2025
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जिधर कुछ नहीं है, दिशा है…

Ravivani 30


SUDHANSHU GUPTलेखन (कविता-कहानी) ऐसा होना चाहिए जो आपकी तंद्रा तोड़ सके, जो आपके भीतर जम गई या जम रही बर्फ को पिघला सके, जो आपको वे अन्धेरे दिखा सके जिन्हें आप रोशनी की चमक में देखना भूल गए हैं, जो ऐसे सवालों से आपकी मुठभेड़ करा दे जिन्हें सुनने के लिए आपके कान तैयार नहीं होते, जो आपकी रीढ़ की हड्डी की लोच को सीधा कर सके, जो आपको आरामगाह में न ले जाकर बेचैन कर दे, जो आपको मुक्त न करे बल्कि बांध ले…। मुझे लगता है कि कवि-लेखक-फिल्मकार देवी प्रसाद मिश्र इन सभी मानकों पर खरे उतरते हैं। देवी प्रसाद मिश्र से 1990 में परिचय हुआ, फिर हम दोस्त हो गए। यह दोस्ती सिर्फ एक साल रही। इसके बाद हम सालों नहीं मिले। फोन पर भी बात नहीं हुई। हां, उनकी कुछ कविताएं अवश्य पढ़ता रहा। लेकिन यह पाठक और लेखक के बीच का ही संबन्ध रहा। 2023 में अचानक फिर देवी प्रसाद मिश्र से जान-पहचान और पुरानी मित्रता ‘रिवाइंड’ हुई-उनके कथा संग्रह मनुष्य होने के संस्मरण की अन्य कथाएं के माध्यम से। इस कथा संग्रह से बहुत-सी बातें पता चलीं। देवी प्रसाद मिश्र कविता और कथाओं के जरिये वैकल्पिक मनुष्य खोजना चाहते हैं। वैकल्पिक दुनिया बनाना चाहते हैं। वह साहसी हैं, प्रयोगधर्मी हैं, प्रतिबद्ध हैं। उनके पास अनुभव, अध्ययन और विचार हैं। उनके पास समय, समाज और विश्व साहित्य की समझ है। अपनी इन कथाओं में देवी कथा को बहुत छोटे रूप में लिखते हैं। मनुष्य होने के संस्मरण के बाद उनका कविता संग्रह-जिधर कुछ नहीं (राजकमल पेपरबैक) पढ़ने की जिÞद हुई, पढ़ा। पाया कि उनका लेखन छितराया हुआ नहीं है। वह एक-दूसरे का पूरक है। उसमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं है। शायद यही वजह है कि वह कविता और कथा के बीच सहज रूप से आवाजाही करते हैं। कविता की इस पुस्तक में उनकी एक ही लम्बी कविता है, जो 86 पृष्ठों में फैली है। इस लंबी कविता को देवी एक ही कथा मानते हैं। अलग-अलग पृष्ठों पर इसके टुकड़े हैं-यह एक ऐसी कविता-कथा है जिसका आदि है, मध्य है और अंत है। इस कविता में पात्र हैं और मंच हैं। देवी कहते हैं कि यह कविता भारतीय हिंसा का संक्षिप्त इतिहास सरीखी भी है। इस कविता का मंच वह पूरी सृष्टि को बताते हैं। स्पष्ट है कि यह कविता स्थानीय नहीं है, किसी मुल्क की नहीं बल्कि पूरे विश्व की है। हम सबकी है।

वास्तव में इस लंबी कविता में कथा तो है ही, इसके साथ ही बहुत से जरूरी सवाल हैं। कथा का नायक (मैं) उस समय वृतांतों के उजाड़ में एक और बोली खोजने के बियाबान में खड़ा है, भाषा जब ट्राल और सवार्नुमति के दो ध्रुवांतो में नष्ट हो रही है। यहां से फिल्म आगे बढ़ती है। नायक (मैं) को बहुत से फ्रेम (कविता खंड)दीखते हैं। मिसाल के तौर पर: मोहम्मद रफी को गाते हुए/और इब्ने सफी को पढ़ते हुए मैं बड़ा हुआ था/विनोद, हामिद और कासिम की/हंसते हुए हत्यारों को खोजने की/सूझ और प्रतिभा से आप्लावित/बारिश में भीगते हुए विटामिन बी ट्वेल्व/और धूप में घूमते हुए डी थ्री मुझे मिलता था/परिवार ईश्वर स्कूल और सृष्टि से मैं नाराज रहता था
इस पूरी लंबी कविता में देवी के भय, संशय और सवाल निरंतर दिखाई देंगे , पुस्तकालय दिखाई देंगे जो शायद नायक (मैं) के भीतर हैं और उनके बीच बैठा मैं पुस्तकों के पार जाता रहता है, इस संसार को ढहाकर एक और संसार बनाता रहता है। शायद बचपन से ही। नायक (मैं) अपनी दुविधाओं और निराशाओं और संभावनाओं और सवालों और विश्व साहित्य और दर्शन के साथ निरंतर जूझता रहता है। भाषा को निजी न बताकर ‘जनता’ बताने वाला यह कवि अपनी जटिलताओं से भी परिचित है। एक कविता में वह कहता है-मुझे मंटो बुलाता है/कि सीधे बात कह दो/गजानन ने मुझे आवाज दी है-विकल होना जटिल होना।

देवी प्रसाद मिश्र की इस लंबी कविता में वर्ग संघर्ष है, सर्वहारा है, आदिवासी हैं, मीडिया है, नारीवाद है, ईश्वर है अनीश्वर के रूप में और है बहुमत का सब्जीबाजार। एक कविता में वह कहते हैं-बहुमत के सब्जी बाजार/और मीडिया के फिश मार्केट में खड़ा था मैं/न्याय पाने की गफ़्लत में/खुद को तबाह करने की जिद पर अड़ा था
न्याय पाने की यह जिद अपने लिए नहीं है, सबके लिए है। इसके न मिलने पर ही देवी प्रसाद मिश्र कहते ॅहैं: कविता इस विलाप से क्यों न भरी हो/कि कौन ले आया हमें इस हाल में/क्यों हमें बनाने पड़े/भूस्खलन वाले भूखण्डों पर घर/मनुष्य हो जाना क्यों विपत्ति हुआ/क्यों नहीं मिला न्याय। पर्यावरण भी देवी प्रसाद की चिंताओं में शामिल है और ईश्वर-अनीश्वर भी। देवी की एक कविता है:
मैं बार बार सिर पकड़कर बैठता था/कि क्यों नहीं समझा जाता/कि पहिया/और मानव/ईश्वर के आविष्कार से हजारों साल पुराने हैं
उनकी चिंता यह भी है-मार्क्सवाद से कौन चुराकर उठा ले गया/अनीश्वरवाद की प्रतिमा
इस लंबी कविता में भी देवी बदलाव का आह्वान करते दिखाई देते हैं। वह कहते हैं-मैं टिफिन लेकर बदलाव के लिए निकलता था/उस दुनिया में जहाँ कारपोरेट/सोशियोपैथ में बदल गया था/और सरकारें सीरियल किलर में
इसी कविता के अंत में वह कहते हैं-पाप के प्रमाणपत्रों से लैस थे जनप्रतिनिधि/राजनीति भारतीय मनुष्य के विरुद्ध सतत अपराध थी-क्राइम अगेंस्ट ह्युमैनिटी मेरी पैंट थी पीछे से फटी हुई
इस कविता में आप बहुत कुछ साफ दिखाई देता है।

‘जिधर कुछ नहीं’ संग्रह की लंबी कविता वर्तमान समय के सारे बड़े सवालों से जूझती है। कवि राज्य और बाजार के बीच अपना होना तलाशता है तो दूसरी ओर वह ज्ञान को कर्मठता से नहीं जुड़ पाने को मिर्ची वाले बासी पकौड़े में बदलता है। कवि की निराशा मनुष्य के मनुष्य न बन पाने की है। देवी इस कथा के चार पात्र बताते हैं। ये चार पात्र वास्तव में हम सब ही हैं-दुनिया में कहीं भी रहने वाला हर व्यक्ति। लेकिन इतनी निराशाओं के बीच भी देवी प्रसाद मिश्र कविता के अंत में लिखते हैं-जो तुम्हारी आग से बचा ली है/वह हमारी धधक है/जो तुम्हारे कुचलने से बचा ली है
वह हमारी सनक है/जो तुम्हारे झूठ से बचा ली है/वह हमारी भाषा है/जो तुम्हारे अपराधों से बचा ली है/वह हमारी आत्मा है/जो तुम्हारे रौंदने से बचा ली है/वह हमारी पगडंडी है/जिधर कुछ नहीं है/दिशा है
देवी प्रसाद मिश्र कविता के किसी भी तय फॉरमेट को इस लम्बी कविता में तोड़ते दिखाई पड़ते हैं। उनके पास भाषा है, विचार हैं और रियल बिम्ब हैं। कविता की अन्तिम पंक्ति में जिस दिशा की ओर वह इशारा कर रहे हैं, वह दिशा वैकल्पिक मनुष्य और वैकल्पिक दुनिया की ओर जाती है।


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