Wednesday, July 16, 2025
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यूसीसी: सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठा

Ravivani 30


54 10क्या यह हंसी बात नहीं है कि कोई दल, विचारधारा समूह या उसकी सरकार आधी सदी से समान नागरिक संहिता का राग अलाप रहा हो और उसके पास जनता के विचारार्थ रखने को कोई प्रस्ताव, ड्राफ्ट या प्रावधानों का कोई ठोस मसविदा भी नहीं है? नौ साल लगातार सरकार में रहने के बाद चुनाव के करीब आने पर किसी फरमाइशी गीत माला की तरह जनता से सुझाव मांगे जा रहे हैं? ‘जौहड़ के झाड़ में तेन्दुआ है’,’यह खबर गांव में आग की तरह फैली। देखा किसी ने नहीं था पर ‘है’, यह कई को पक्का पता था। डर, जोश, लालच और भीड़, तर्क पर हमेशा भारी पड़े हैं। लोग लठ्ठ, बल्लम, लाइसेंसी, गैर लाइसेंसी हथियार बंदूक लेकर जौहड़ पहुंच चुके थे। बहुतों की मर्दानगी उफान पर थी, अपने से या शातिरों के उकसावे से। शातिरों का तर्क था कि या तो तेंदुआ मरेगा या एक दुश्मन कम होगा। हो सकता है दोनों की राड कटे। चुस्की तो ले ही लेंगे। फायर झाड में झोंके गए। बल्लम लेकर घुसा गया। हड़बड़ाहट हड़कम्प में एक को पांव में गोली भी लग गई। जूतम पैजार हुई। तेंदुआ नहीं मिला, पर रोजमर्रा की बोरियत से निजात मिली, मनोरंजन खूब हुआ, कुछ किस्से बने। सब वापस घर, समय और कुछ कारतूस बरबाद कर।

मेह में कुछ एक का अनाज भीग गया और घायल व्यक्ति का लंगडापन अब भी गांव को किस्सा याद दिलाता है। आजकल देश के झाड़ में भी गाहे बगाहे तेंदुआ घुसता रहता है। कभी उसका नाम नोटबंदी, कभी किसान कानून होता है। खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारहआना।

इस बार तेंदुए का नाम समान नागरिक संहिता है। सरकार के बड़े पदों पर काबिज लोग, विरोधी, सेलीब्रेटी, फिल्म स्टार, यहां तक कि किसान नेता, आम नागरिक, पक्ष विपक्ष में पाटीबाजी और बयानबाजी कर रहे हैं जोश खरोश से। जनता की छोड़िए, प्रस्ताव क्या है अब तक शायद सरकार को भी पता नहीं! 2024 का आम चुनाव करीब है, यह सबको पता है! चुनाव में सबका वोट है, अत: राय देने और भड़ास निकालने का सबको अधिकार भी है। सारांश में जौहड़ के झाड़ पर गांव इकठ्ठा है। वह भी तब जब विधि आयोग समान नागरिक संहिता की जरूरत को ही नकार चुका है। फिर भी यदि किसी व्यक्ति, नागरिक समूह या सरकार को इसकी जरूरत महसूस होती है तो सबसे पहले उसे इसकी जरूरत के कारणों और प्रस्तावों को सबके सामने विमर्श को रखना चाहिए था, खासकर सरकार को। सरकार का बिना किसी तैयारी जानकारी के जनता से राय शुमारी की बात और बयानबाजी करना, घर बैठे जौहड़ के झुंड में तेंदुए का शोर करने और बंदरों के बीच गुड़ की भेल्ली फेंकने जैसा है। बंदर व्यस्त, जूतम पैजार सुनिश्चित।

समान नागरिक संहिता की हल्की सड़क छाप बहस का केंद्र मुसलमान है और हिंदू राष्ट्र की कल्पना। हिंदू राष्ट्र के हिमायतियों को मुसलमानों पर विशेष कृपा है और समान नागरिक संहिता की बहस में सिक्ख, जैन, बौद्ध, पारसी आदि के देश में अस्तित्व को तो वे भूल ही जाते हैं। ईसाइयों के अंग्रेजी कांवेन्ट स्कूलों में पढ़ाने और अपने बच्चों के दाखिले के लिए यहां वहां से पूरी सिफरिशें लगवाने वाले इन तथाकथित राष्ट्रवादियों का इन्हीं पर धर्मांतरण का आरोप लगाना आम बात है। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण या बहुसंख्यक वर्चस्व वाले किसी भी मिश्रित आबादी के राष्ट्र में कभी स्थिरता नहीं आ सकती।

विविधता और बहुलता इस देश की ताकत है कमजोरी नहीं, यह बात इस देश के हर प्रांत, भाषा, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र के व्यक्ति को बतौर नागरिक समझनी होगी। अच्छा होता, जितना हल्ला समान नागरिक संहिता पर सरकार का है उतना जोर समान, अनिवार्य, सुलभ, सस्ती या नि:शुल्क शिक्षा पर होता तो देश और बच्चों का भविष्य बन जाता। गारंटी तो एक साल सड़क पर पड़े रहे किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य तक की भी नहीं मिली। शिक्षा और स्वास्थ्य के अंधे निजीकरण के कारण पढ़ाई, दवाई और मूलभूत जरूरतों को तरस रहे नागरिक की जरूरतों और मानवीय गरिमा यदि यह समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करती हो तो मैं इसका कटटर समर्थक हूं। पर यहां तो विरोध समर्थन के लिए कोई प्रस्ताव ही नहीं है। सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठा।

दुनिया में नागरिक संहिता या नेपोलीनिक कोड धार्मिक प्रतिबद्धता को निजी आस्था का विषय मानता है और संपत्ति, उत्तराधिकार, तलाक, गुजारा भत्ता, गोद लेना जैसे सामाजिक व्यक्तिगत मसलों तक ही सीमित है। भारत के एक मात्र राज्य पुर्तगाली संस्कृति प्रभावित गोवा में संप्रदाय, जाति, लिंग, यौन रूझान आदि के भेदभाव बिना इसी तरीके के समान पारिवारिक कानून लागू हैं। भाजपा शासित गोवा में गौमांस या बीफ खाया परोसा जाता है और भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में यह बात बलवा करवा सकती है। मतलब इस देश में मुद्दे समाज से ज्यादा वोट के हैं।

मुसलमानों में तो चलो वधू को कानूनन मेहर मिलता है, हिंदुओं में तो दहेज कानूनन अपराध है और बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार कब कैसे मिला, सबको पता है। हिंदुओं में शादी संस्कार है, जन्म जन्मांतर का साथ फिर तलाक क्यों लाए, कहां से लाए? अगर चार बीवी के लिए शरियत है तो चोरी की सजा हाथ कटवाना क्यों मंजूर नहीं? नागा साधूओं और दिगम्बर, मुनियों की सामाजिक पेशी कैसे होगी? इस मुद्दे पर विविधतापूर्ण अनेक सवाल हैं और इस मुद्दे से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण अनेक मुद्दे भी है। हिंदुआें ने आयकर के लिए अविभाजित हिंदू परिवार प्रावधान कायम रखा और तलाक अपना लिया, मुसलमानों ने हाथ न कटवाना अपनाया वैसे ही गरीब अमीर करोड़ों लोगों, हर वर्ग, मजहब क्षेत्र, देश प्रांत के लोगों ने उपयोगी होने पर उदाहरण के लिए मोबाइल अपना लिया। मीठा-मीठा, हप्प, कडवा-कडवा थू, यह प्रकृति का सिद्धांत है। जो सहज उपयोगी होगा स्वत: अपनाया जाएगा वरना लाख कानून बनाईए, स्वीकृति नहीं पाएगा। पानी अपना रास्ता खोज लेगा और प्यासा पानी।

यह बेवजह नहीं था कि समान नागरिक संहिता पर संविधान सभा ने लंबी बहस अनुच्छेद 35 के तहत की पर व्याप्त सांप्रदायिक विषाक्त वातावरण, विरोध व विभाजन के कारण इसकी संवेदनशीलता को देखते हुए इस पर फैसला न लेकर इसे नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में डाल दिया गया। अब इनसे प्रेरणा ली जा सकती थी, पर यह बाध्यकारी नहीं है। हालांकि माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि संसद और विधानसभाओं का ऐसा कानून बनाना संविधान सम्मत है। कानूनी अधिकार और विवेक हमेशा एक नतीजे पर नहीं पहुंचते। तब इन कानूनों के बाध्यकारी न होकर स्वैच्छिक होने पर भी संविधान सभा में विचार हुआ था।

संविधान सभा में समान नागरिक संहिता का समर्थन नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, अम्ंबेडकर, पटेल, आजाद जैसे दिग्गजों ने तब किया था और प्रस्ताव कांग्रेस सांसद मीनू मसानी ने पेश किया था। इसके समर्थन में लैंगिक समानता विशेषकर महिला अधिकार संरक्षण, समान नागरिक कानूनों द्वारा देश की एकता अखंडता सुदृढ़ होना, व्यक्तिगत अधिकारों के लिए विकल्प उपलब्ध करा पंथ निरपेक्षता मजबूत करना, कानूनी व्यवस्था को प्रगतिशील और आधुनिक बनाना और विविध संस्कृतिओं में सौहार्द स्थापना इसके उद्देश्य बताए गए थे। तब भी विरोध विभिन्न संप्रदायों के पैरोकारों, धर्म गुरुओं और संगठनों ने ही किया था। प्रगतिशील धार्मिक नेताओं ने संतुलित रुख की वकालत की थी। तब समान नागरिक संहिता के विरोध में धार्मिक व सांस्कृतिक संप्रभुता में हस्तक्षेप, विविधता व बहुलता का असम्मान व राज्य के धार्मिक आजादी में दखल से मौलिक अधिकारों के हनन की दलीलें दी गर्इं।

हमारा संविधान नागरिक के बीच भेदभाव नहीं करता, जिससे देश आसानी से चलाया जा सकता है। सिर्फ कानून होना न्याय मिलना सुनिश्चित नहीं करता। समस्या बहुदा अनुपालन और नीयत में होती है। इस मुद्दे पर कानून की कमी से ज्यादा बड़ा संकट एक बडेÞ वर्ग में सरकार पर अविश्वास और अविश्वसनीयता का है। फिर भी यदि सरकार कोई निष्पक्ष, व्यवहारिक, साफ नीयत, प्रगतिशील प्रस्ताव लाती है, तो उस पर खुले दिल से विचार होना चाहिए। यदि वंचित आदिवासी, बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं के हित में कुछ आता है तो कोई भी समझदार नागरिक स्वागत ही करेगा। मानव अधिकारों का दम भरने वाले पश्चिमी देशों में तो अश्वेतों और महिलाओं को मतदान का अधिकार भी सदियों के संघर्ष के बाद मिला था।

मुगल काल में सबने कभी नमाज नहीं पढ़ी, अंग्रेजी राज में सब चर्च नहीं गए, हमेशा इस देश का बहुसंख्यक संस्कृत जानता ही नहीं था और राज तो जबरन मुटठी भर अंग्रेजों ने बल के दम पर दो सौ साल कर ही लिया। किसी की बीवियों या पतियों की राशनबंदी करके देश को गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी से मुक्ति मिलनी नहीं फिर इतनी महंगाई में कई-कई पत्नी/पति आम नागरिक की औकात में भी नहीं है। इसी सरकार में जब व्याभिचार देश में अपराध रहा नहीं, समलैंगिकता और लिव इन को कानूनी मान्यता प्राप्त हो गई तो र्संप्रदायिक दृष्टिकोण से भी ऐसे किसी कानून जिससे दिलजलों या नैतिकतावादियों की भड़ास भी ठीक से निकलनी संभव न हो तो उसके लिए हम अनावश्यक देश में बवाल क्यूं कर रहे हैं? नदी होगी तो ही न पुल पार करेंगे।


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