हाल ही में 28 जुलाई को सरकार ने किसानों की आत्महत्या से जुड़े आंकड़े पेश किए हैं, जिससे पता चलता है कि साल 2017, 2018 और 2019 में किन राज्यों में कितने किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट पर आधारित हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चलता है कि किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या कम होने की बजाय बढ़ी है। 2020 के दौरान कृषि क्षेत्र से जुड़े 10,677 लोगों ने आत्महत्या की जो देश में कुल आत्महत्याओं (1,53,052) का 7 प्रतिशत है। इसमें 5,579 किसान और 5,098 खेतिहर मजदूरों की आत्महत्याएं शामिल हैं। लगातार चार साल गिरावट के बाद कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के मामले पुन: बढ़े हैं। 2016 में कुल 11,379 किसान और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी। 2017 में इसमें गिरावट आई और संख्या 10,655 रह गई। 2018 में 10,349 तो 2019 में इस तरह के आत्महत्या के कुल 10,281 मामले सामने आए थे।
2020 में ऐसे मामलों की संख्या 10,677 रही। वहीं अगर 2019 से 2020 की तुलना करें तो 2019 में 5,957 किसान और 4324 कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी। जबकि 2020 में आंकड़ा क्रमश: 5,579 और 5,098 रहा। यानी कृषि मजदूरों की आत्महत्या के मामले 2020 में बढ़े हैं। 2020 में आत्महत्या करने वाले 5,579 किसानों में से 5,335 पुरुष थे और 244 महिलाएं थीं और आत्महत्या करने वाले 5,098 कृषि मजदूरों में 4621 पुरुष और 477 महिलाएं थीं। साल 2019 में महाराष्ट्र और कर्नाटक के बाद किसानों की आत्महत्या के मामले में तीसरे नंबर पर आंध्र प्रदेश, चौथे पर तेलंगाना और 5वें नंबर पर पंजाब का नाम आता है। आंध्र प्रदेश में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 628, तेलंगाना में 491 और पंजाब में 239 है। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र से हैं। विगत तीनों वर्षों में महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा किसानों के आत्महत्या के मामले सामने आए। यह चिंता का विषय है।
गत दशक के आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में हर साल औसतन तीन हजार किसान आत्महत्या करते हैं। वर्ष 2020 में दो हजार 270 किसानों ने आत्महत्याएं कीं. हालांकि, यह वर्ष 2019 के मुकाबले 262 कम है। इस साल राज्य के कोकण में अंचल में आत्महत्या नहीं हुई। ये आंकड़े राज्य के राहत व पुनर्वास विभाग ने सूचना के अधिकार द्वारा मांगी गई जानकारी में दिए। हालांकि, इन आंकड़ों को जारी करते हुए विभाग ने दावा किया कि वर्ष 2020 में नागपुर और नासिक संभाग को छोड़ दें तो सभी संभागों में किसान आत्महत्या के प्रकरण कम हुए हैं। विदर्भ राज्य में किसानों की आत्महत्या के लिए पहचाना जाता है। आत्महत्या करने के बाद सरकार की तरफ से किसान परिवार को आर्थिक सहायता भी दी जाती है। लेकिन, आत्महत्या करने से पहले ही इन आत्महत्याओं के मूल में छिपे कारण को सुलझाने की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। राज्य के इस अंचल में पिछले साल एक सर्वेक्षण किया गया था।
इस सर्वेक्षण में किसानों के मानसिक अवसाद को समझने की कोशिश की गई थी। इस दौरान यह तथ्य सामने आया कि विदर्भ के साठ प्रतिशत किसानों को मानसिक उपचार की आवश्यकता है। इस सर्वेक्षण को करने वाली संस्था ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ पॉपुलेशन साइंस’ का मानना था कि विदर्भ के किसानों को मानसिक परामर्श देने के लिए सरकार आगे आए और उनके लिए विशेषज्ञ और प्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति करे। इस सर्वेक्षण में विदर्भ के 34.7 प्रतिशत किसानों में गंभीर मानसिक बीमारियों से जुड़े लक्षण पाए गए थे। इनमें 55 प्रतिशत किसानों की स्थिति चिंताजनक थी। वहीं, 24.7 प्रतिशत किसान जबरदस्त हताशा से गुजर रहे थे। प्रश्न है कि विदर्भ के किसान मानसिक अवसाद की स्थिति से क्यों गुजर रहे हैं। दरअसल, विदर्भ की एक बड़ी आबादी पूरी तरह खेतीबाड़ी से जुड़ी हुई है और आजीविका के लिए खेती ही एक विकल्प है। या दूसरे शब्दों में यहां के लोगों के पास खेती का विकल्प नहीं है। लेकिन, इसे विडंबना ही कहेंगे कि विदर्भ की इतनी बड़ी आबादी की आजीविका मानसून पर निर्भर है।
आंकड़ों के मुताबिक यदि यहां की 91 प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर है तो जाहिर है कि मानसून की अनिश्चितता उनके जीवन को प्रभावित करती है। हालांकि, विदर्भ की खेती पर छाया संकट सिर्फ मानसून पर निर्भरता के कारण ही नहीं है, बल्कि इसके लिए सरकार की गलत नीति, बढ़ती लागत और राजनैतिक नेतृत्व द्वारा किसानों के प्रश्नों पर बरती जाने वाली उदासीनता भी जिम्मेदार है। फिर विदर्भ में किसानों को ऋण देने वाली विश्वसनीय संस्थाओं का अकाल है। लिहाजा, अब भी यहां के किसान पैसे के लिए साहूकारों के सहारे ही हैं। इसी तरह, विदर्भ की खेती का यह संकट मुख्यत: बेमौसम बरसात के साथ कपास जैसे नकद फसल को उगाने वाली खचीर्ली खेती से भी जुड़ा है। इसे इस साल किसानों पर आई ताजा आफत से भी समझ सकते हैं।
विदर्भ में खास तौर से यवतमाल जिले को कपास उत्पादन के कारण जाना जाता है। लेकिन, पिछले कई वर्षों से विदर्भ के अन्य जिलों की तरह यवतमाल जिला भी किसान आत्महत्याओं के कारण चर्चा में रहा है। ऐसा इसलिए कि यहां पिछले कुछ दशकों से कृषि क्षेत्र में आए संकट के भंवरजाल में फंसे किसान इससे बाहर नहीं निकल पा रहे है। यहां के किसान मौजूदा परिस्थितियों को बदलने के लिए हर साल लगातार अपने खेतों में बुवाई कर रहे है। प्रश्न है कि विदर्भ का एक कपास उत्पादक किसान बंपर फसल की उम्मीद पर प्रति एकड़ अपने खेत में सालाना किन-किन चीजों पर करीब कितनी लागत खर्च करता है। राज्य सरकार द्वारा पिछले दो वर्षों में हुर्इं किसानों की आत्महत्या से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं विदर्भ के अमरावती संभाग में हुर्इं। इस दौरान अमरावती संभाग में सबसे अधिक एक हजार 893 किसानों ने आत्महत्या की।
भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियां, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फंसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएं की है। किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुंचा देने के लिए जिम्मेदार मुख्य कारणों में एक सबसे बड़ा कारण खेती का आर्थिक दृष्टि से नुकसानदेह होना तथा किसानों के भरण-पोषण में असमर्थ होना है।