राज्य निधि से पोषित किसी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। ..खंड /1/ की बात ऐसी शिक्षा संस्था में लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन राज्य करता है, किंतु जो किसी ऐसे विन्यास या न्यास के अधीन स्थापित हुई है, जिसके अनुसार उस संस्था को धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है। संविधान की धारा 28/1/ की अगली कड़ी कहती है : ‘राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जाएगा, जब तक कि उस व्यक्ति ने या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने इसके लिए अपनी सहमति नहीं दी है। राज्य निधि से पोषित किसी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।’ संविधान की धारा 28 /1/ इस बात का खुले आम ऐलान करती है। कहा जा सकता है कि 40 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब दक्षिण एशिया का यह हिस्सा धार्मिक उन्माद से फैली हिंसा से उबरने की कोशिश में मुब्तिला था, उन दिनों स्वाधीन भारत के संविधान निर्माताओं ने जिस दूरंदेशी का परिचय दिया, उसका अंदाजा लगाना आज मुश्किल है। उस घड़ी में ही जब आपसी खूंरेजी उरूज पर थी, उनके सामने यह बिल्कुल साफ था कि अगर मुल्क को प्रगति की राह पर ले जाना है तो बेहतर है कि एक नयी जमीन तोड़ी जाए, स्कूल/शिक्षा संस्थान-जिनका बुनियादी मकसद बच्चों/विद्यार्थियों के दिमाग को खोलना है और उन्हें बेकार की चीजें ठूंसे जाने का गोदाम नहीं बनाना है-धार्मिक शिक्षा से दूर रखे जाएं। यहां इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि धार्मिक शिक्षा का यहां सीमित अर्थ है।
वह इस बात को संप्रेषित करता है कि रस्मों-रिवाजों की शिक्षा, पूजा के तरीके, आचार या रस्मों को शैक्षिक संस्थानों के परिसरों में अनुमति नहीं दी जा सकेगी जिन्हें राज्य से समूचे फंड मिलते हों।
संविधान की धारा 28 /1/ महज इस मामले में अपवाद करती है कि कि अगर कोई शिक्षा संस्थान किसी ट्रस्ट के तहत या किसी एंडोन्मेन्ट के तहत स्थापित किया गया हो, जहां पर धार्मिक शिक्षा देना जरूरी होता हो, तो वहां चाहे तो प्रबंधन इस मामले में फैसला ले सकता है।
वैसे जैसे जैसे आजादी के 75 वीं सालगिरह को लेकर समारोहों, ऐलानों की बाढ़ आ गई है, हम खुद देख रहे हैं कि ब्रिटिशों की गुलामी के दौरान चले राजनीतिक-आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति संघर्षों में हासिल अहम सबकों को कितनी आसानी से भुलाया जा सकता है, किस तरह बेहद आसानी के साथ धार्मिक शिक्षा के लिए दरवाजे सरकार द्वारा संचालित शिक्षा संस्थानों में खोले जा सकते हैं!
क्या इसकी अहम वजह मुल्क की बागडोर ऐसे लोगों, ताकतों के हाथों में पहुंचना है, जिन्होंने उस ऐतिहासिक संघर्ष की विरासत को कभी भी अपना नहीं कहा? इस बात की पड़ताल जरूरी है।
इस मामले में सबसे ताजा मसला मध्य प्रदेश में सामने आया है जब बीए के दर्शन के प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों के लिए रामचरितमानस के दर्शन को एक वैकल्पिक विषय के तौर पर प्रस्तुत किया गया है, उसके साथ ही वह ‘रामसेतु की चमत्कारी इंजिनीयरिंग’ के पाठ भी पढ़ेंगे और ‘राम राज्य के आदर्शों’ पर भी सबक ग्रहण करेंगे।
गौरतलब है कि अपने लिए किसी असुविधा से बचने के लिए सरकार की तरफ से कहा गया है कि यह कदम किसी विशिष्ट धर्म के बारे में नहीं है और उसमें ‘विज्ञान, संस्कृति, साहित्य और श्रृंगार’/ भारतीय क्लासिकल कला रूपों में प्रेम और सौंदर्य की अवधारणा/ पर भी बात होगी।इस संदर्भ में एक बात ध्यान में रखे जाने की जरूरत है कि महामारी के दौरान लायी गई नयी शिक्षा नीति ने ऐसे कदमों को उठाने को और सहूलियत प्रदान की है, क्योंकि उसके तहत प्रस्तुत ‘भारतीय ज्ञान परंपरा’ में ऐसे विषयों को शामिल करना आसान है।
महज कुछ माह पहले मुख्यधारा की मीडिया में इसके बारे में रिपोर्ट छपी थी कि शिक्षा मंत्रालय के तहत स्वायत्त ढंग से संचालित एनआईओएस अर्थात नेशनल इंस्टीट्यूट आफ ओपन लर्निंग ने मदरसों में गीता और रामायण को ले जाना तय किया है।
या हम हरियाणा सरकार के कुछ साल पहले के फैसले को याद कर सकते हैं कि जनाब मोदी के पहली दफा प्रधानमंत्रापद संभालने के महज एक साल बाद उसकी तरफ से स्कूल के पाठयक्रम में भगवतगीता को शामिल किया गया था।
राजस्थान की पूर्ववर्ती वसुंधरा राजे सरकार ने किस तरह अपने कार्यकाल में स्कूलों में विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए संत महात्माओं को बुलाना तय किया था और किस तरह उसे बुद्धिजीवियों तथा नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं के प्रबल विरोध के चलते उस फैसले को वापस लेना पड़ा था, यह बात भी सर्वविदित है।
उन दिनों लोग यह जान कर भौंचक्के रहे गए थे कि राजस्थान के स्कूल के पाठयक्रम में कक्षा दो की किताबों में आसाराम बापू को महान संत के तौर पर पढ़ाया जा रहा था। जबकि दुष्कर्म के गंभीर आरोपों के चलते वह दो साल से जेल में था।
फिलववक्त हम भले ही इस बहस में न जाएं कि क्या धार्मिक किताबों से लोगों के नैतिक आचरण में विकास होता है, लेकिन अगर हम बारीकी से देखें तो विभिन्न धर्मों की ‘पवित्र किताबों’ में हमें ऐसी तमाम बातें मिल सकती हैं जो असमावेशी प्रतीत होती हों यहां तक कि समाज की सोपानक्रम नुमा संरचना को वैधता प्रदान करती हों या समुदाय विशेष के खिलाफ हिंसा का आह्वान करती दिखती हैं।
और इस स्थिति में यह सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि ऐसे पाठों को शिक्षा के पाठयक्रम में क्यों स्थान दिया जाए ?
हमें यह भी सोचना चाहिए कि पाठयक्रम में अगर किसी धर्मविशेष की बातें या उससे जुड़ी किताबें, ग्रंथ शामिल किए जाएं तो इसका बेहद विपरीत असर उन विद्यार्थियों पर पड़ सकता है जो अज्ञेयवादी हों या निरीश्वरवादी हों या दूसरे धर्म, संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों।
इतिहास में दर्ज है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण /साइंटिफिक टेम्पर/ के बारे में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू बहुत पहले से सक्रिय थे। दरअसल संविधान के बुनियादी कर्तव्यों में वैज्ञानिक चिन्तन को शामिल करने के पीछे उन्हीं का अहम योगदान था।
जैसे-जैसे धार्मिक शिक्षा आम होती जाएगी, वह वैज्ञानिक चिंतन के विकास को बाधित करेगी। शायद उन्हें यह भी बताना होगा कि धार्मिक चेतना और वैज्ञानिक चेतना समानान्तर धाराएं हैं और आपस में नहीं मिलतीं।