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आज के बाजारवादी व उपभोक्तावादी समाज में छल-छद्म की साजिश से बचने के लिए ज्ञान की उपयोगिता बढ़ गई है। भक्त कवियों के यहां जो माया है वो आज के दौर में बाजारवादी विज्ञापन है। विज्ञापन में झूठ को सच की तरह परोसकर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है। इस भ्रम से पर्दा हटाने के लिए गुरु अर्थात ज्ञान की आवश्यकता बढ़ती जा रही है।
इस दौर में हर वह व्यक्ति गुरु की भूमिका में है जो भ्रम को दूर कर लोगों को सच से रूबरू कराए। ऐसे में आज गुरु पूर्णिमा के दिन सभी गुरुजन के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर है।
भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्व सर्वोपरि है। गुरु को ईश्वर से बढ़कर मानते हुए उन्हें साक्षात परम ब्रह्मा बताया गया है। गुरु ज्ञानदाता है। गुरु पूर्णिमा आषाढ़ माह की पूर्णमासी के दिन मनाया जाता है। इस दिन महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। उन्हें आदि गुरु कहा जाता है। वेदव्यास जी ने वेदों को लिपिबद्ध किया। उन्हें महाभारत,उपनिषदों, पुराणों,भागवत आदि श्रेष्ठ ग्रंथों के रचनाकार माना जाता है।
महाभारत में गीता की रचना कर उन्होंने लोगों को कर्म का संदेश दिया। इसलिए उन्हें राष्ट्र गुरु भी माना जाता है। ज्ञान के बिना किसी भी लक्ष्य को पाया नहीं जा सकता है। गुरु का संबंध ज्ञान से है। ज्ञान के बिना न तो कोई युक्ति है और न ही कोई मुक्ति। ज्ञान के बिना दुनिया भ्रम के सिवाय कुछ नहीं है। अज्ञानता दूर कर पथ प्रदर्शक के रूप में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका है।
गुरु द्वारा मिले ज्ञान से ही ईश्वर के विषय में जाना जा सकता है। भक्ति कालीन हिंदी कविता में गुरु की महत्ता बार-बार स्थापित की गई है। कबीर ने तो गुरु का दर्जा भगवान से भी बढ़कर माना है। वे निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी कवि थे। निर्गुण पंथ में ज्ञान को महत्वपूर्ण माना गया है। ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है।
कबीर की कविता में इसलिए ज्ञान की आंधी चलती है। वे लिखते हैं कि ‘संतों भाई आई ज्ञान की आंधी रे’। वे ज्ञान को आंधी के रूप में देखते हैं। इस ज्ञान की आंधी में ही दुनिया से भ्रम का पर्दा उठेगा और ईश्वर का साक्षात्कार होगा। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए सहजता का होना बहुत जरूरी है। कबीरदास जी लिखते हैं कि ‘हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि/स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि’।
अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए लोक निंदा की भी परवाह नहीं करनी चाहिए। सहजता व विनम्रता से ज्ञान को स्वीकार करना चाहिए। आडंबर व अहंकार से ज्ञान नष्ट हो जाता है। भक्तिकालीन कवियों ने बताया है कि ज्ञान गुरू के सानिध्य में मिलता है। कबीरदास ने लिखा है कि झ्र ‘गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष/गुरु बिन लखै न सत्य को गुरु बिन मिटैं न दोष’। गुरू को इतनी ऊँची प्रतिष्ठा इसीलिए मिली है क्योंकि वे सत्य का साक्षात्कार कराते हैं। यथार्थ का परिचय कराने में गुरु की भूमिका सर्वोपरी है। ज्ञान के अभाव में वास्तविक दुनिया का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है।
निर्गुण पंथ के ही प्रेममार्गीय कवियों ने भी गुरू को पर्याप्त महत्व दिया है। प्रेममार्ग पर चलते हुए ईश्वर से मिलन तभी संभव हो सकता है जब गुरु के बताए हुए मार्ग पर चला जाए। सूफी कवि जायसी ने पद्मावत में गुरु की महिमा का बखान करते हुए लिखा-गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा/बिन गुरु जगत को निरगुन पावा। प्रेम मार्ग पर चलकर ईश्वर से साक्षात्कार करने वाले सूफी कवियों के यहां भी प्रेम का रास्ता गुरु ही दिखाते हैं।
निर्गुण काव्यधारा के कवियों की भांति सगुण काव्यधारा के कवियों ने भी गुरु को ऊंचा स्थान दिया है। राम भक्त कवि तुलसीदास ने तो गुरु के बिना भवसागर को पार करना असंभव बताया है। उन्होंने कहा कि ब्रह्मा व शंकर की भांति भी चाहे कोई क्यों न हो उसे भी गुरु के बिना भवसागर से मुक्ति नहीं मिल सकती है। तुलसीदास जी लिखते हैं-बिन गुरु भव निधि तरई न कोई/जौ विरंचि शंकर सम होई।
गुरु उस दीपक के समान होता है जो स्वयं जलकर भी अपने शिष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। महाकवि सूरदास ने गुरु को इसी रूप में देखते हुए लिखा है-गुरु बिनु ऐसी कौन करै?/माला-तिलक मनोहर बाना/लै सिर छत्र धरै/भवसागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै/सूर स्याम गुरु ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरै। यानी गुरु ही भवसागर से डूबने से बचाने का कार्य करते हैं। भक्त कवियों का यह चिंतन आज बेहद प्रासंगिक है।
आज के बाजारवादी व उपभोक्तावादी समाज में छल-छद्म की साजिश से बचने के लिए ज्ञान की उपयोगिता बढ़ गई है। भक्त कवियों के यहां जो माया है वो आज के दौर में बाजारवादी विज्ञापन है। विज्ञापन में झूठ को सच की तरह परोसकर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है। इस भ्रम से पर्दा हटाने के लिए गुरु अर्थात ज्ञान की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। इस दौर में हर वह व्यक्ति गुरु की भूमिका में है जो भ्रम को दूर कर लोगों को सच से रूबरू कराए।
ऐसे में आज गुरु पूर्णिमा के दिन सभी गुरुजन के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर है। व्यक्ति तथा राष्ट्र के उत्थान में गुरु की भूमिका निर्विवाद है। उनके प्रति समर्पण भाव से श्रद्धा तथा सम्मान व्यक्त करना शिष्य का परम कर्तव्य है। गोस्वामी तुलसीदास जी गुरु महिमा का बखान करते हुए मानस में लिखते हैं-जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं,ते जनु सकल बिभव बस करहीं।
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