संपूर्णता अव्याखेय है। उसकी व्याख्या असंभव है। उसका निर्वचन संभव नही। संपूर्णता मे व्यक्त जगत है और अव्यक्त भी। हम सब सम्पूणता का अविभाज्य अंश है। संपूर्णता और हम अलग अलग नही है। यह अलग होती तो हम उसे तर्क जिज्ञासा और शोध के दायरे मे ले सकते थे। चुनौती बड़ी है। हम उसका क्या नाम रखे। नाम रूप आकार खड़ा करता है। संपूर्णता‘नाम’ की परिभाषा मे नही आ सकती। लेकिन रामचरितमानस मे नाम के प्रभाव का सुन्दर वर्णन है, ‘देखिअहिं रूप नाम आधीना /रूप ज्ञान नही नाम विहीना -रूप नाम के अधीन होते है। नाम के बिना रूप का ज्ञान नही होता। आगे कहते है ,’ नाम रूप गति अकथ कहानी/समझत सुखद ना परति बखानी-नाम और रूप की गति की कहानी अकथनीय है। वह समझने मे सुखदायक है लेकिन उसका वर्णन नही किया जा सकता।‘ऋग्वेद के ज्ञानसूक्त मे कहा गया है कि ‘ज्ञान के प्रारम्भिक चरण मे रूपो के नाम रखे गए। लेकिन उनका अर्थ विद्वान बताते है’। अस्तित्व में करोड़ों रूप हैं और उनके नाम भी। अस्तित्व के पर्याय के एक नाम के लिए हमारे पूर्वजों ने नाम की जगह वह सर्वनाम का प्रयोग है।
भाषा मे पदार्थों व्यक्तियों के नाम होते है। नाम के बार बार उल्लेख से बचने के लिए सर्वनाम का प्रयोग होता है। वह, वे आदि शब्द सर्वनाम हैं। भारतीय चिंतन में संपूर्णता के अनेक नाम हैं। ईश्वर भी एक नाम है। और भगवान भी। लेकिन दोनों वैयक्तिक जान पड़ते हैं। अस्तित्व सर्वत्र व्यापक है। संपूर्णता में व्यक्त और अव्यक्त दोनों साथ साथ हैं। उपनिषदों में संपूर्णता के लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ संपूर्ण विस्तारमानता है। वैज्ञानिको ने भी अस्तित्व को सतत विस्तारमान कहा है। ब्रह्म वैयक्तिक नही है। इसका नाम तो है लेकिन रूप आकार नही है। नाम रखते ही आकार की कल्पना शुरू हो जाती है। तैत्तिरीय उपनिषद मे एक प्रेमपूर्ण मंत्र का हिस्सा है-‘रसो वै स: अर्थात वह रस है’। यहां ‘वह’ का प्रयोग विचारणीय है। ऋषि ने उसका नाम नही बताया। नाम रखते ही आकार या रूप की समस्या आती। लेकिन विद्वानों ने ‘वह’ का अनुवाद ईश्वर या भगवान किया है। लेकिन ‘वह’ का आनंद ही दूसरा है। शब्द भगवान व्यक्तिबोधक जान पड़ता है। भगवत्ता से निस्संदेह सर्वव्यापी होने का भावार्थ निकलता है।
वृहदारण्यक उपनिषद (5.1) का एक मंत्र संपूर्णता का परिचय है। वह पूर्ण है-पूर्णम अद:। यह पूर्ण है -पूर्णम इदं। उस पूर्ण से यह पूर्ण उत्पन्न हुआ है-पूर्णात पूर्ण मुदच्यते। पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने से भी पूर्ण ही बचता है। ‘पूर्ण’ का अर्थ सीधा है लेकिन गणित अटपटा है। पूर्ण से पूर्ण घटाकर भी पूर्ण ही बचना आश्चर्यजनक है। इस पूर्ण का कोई नाम नही। मंत्र मे नाम की जगह यह, वह सर्वनाम का प्रयोग हुआ है। उपनिषद दर्शन की अभिव्यक्ति निराली है। संपूर्ण अस्तित्व का नाम रखना कठिन है। नाम लेते ही रूप का विचार होता है। रूप के विचार के साथ आकार का विचार भी प्रकट होता है। सभी रूपों के आकार भी होते हैं। ‘वह’ कहना सुगम है। अग्नि वैदिक देवता है। उनका रूप है। ताप अग्नि का गुण है। ऋषि अग्नि के वर्णन मे रूप की सत्ता को अस्तित्वव्यापी बतातें है। कठोपनिषद मे कहते हैं कि यह अग्नि ही समस्त भुवनो में रूप रूप प्रतिरूप हो रहा है। ‘यहां अग्नि का रूप नही है। अग्नि ही सभी रूपों मे प्रकट हो रहा है।
ऋग्वेद का नासदीय सूक्त बड़ा प्यारा है। ऋषि अस्तित्व के पहले की स्थिति का वर्णन करते हैं, ‘तब न सत था और न असत। न दिवस था और न रात्रि। न जीवन था और न मृत्यु। तब क्या था? आकाश में बैठा सृष्टि का अध्यक्ष भी यह बात जानता है कि नहीं जानता?’ यहां सृष्टि के कर्ता को अध्यक्ष कहा गया है । इसका कोई नाम नही है। कहते हैं कि वह एक वायुहीन वातावरण मे अपनी क्षमता के बल पर सांस ले रहा था-अनादीवातं स्वधया तदेकं। ‘वह‘ शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है। वह सर्वनाम है। पता नहीं चलता कि वह सर्वनाम का प्रयोग किस नाम के स्थान पर हुआ है। अनेक विद्वानों ने ‘वह’ को ब्रह्म कहा है। एतरेय उपनिषद (प्रथम अध्याय) मे उसे आत्मा कहा गया है । सबसे पहले आत्मा थी। गीता प्रेस के अनुवाद में उसे परमात्मा कहा गया है। ऋग्वेद मे सबसे पहले हिरण्यगर्भ थे। वही सब के कर्ताधर्ता थे। सृष्टि सृजन की पूर्व स्थिति वैज्ञानिकों की भी जिज्ञासा है। वैदिक साहित्य की यह जिज्ञासा किसी न किसी रूप से अनेकश: प्रकट हुई है।
‘वह’ सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रपंचों को धारण करता है।
‘वह’ का नाम महत्वपूर्ण नहीं है। शेक्सपियर ने ठीक लिखा है कि नाम मे क्या धरा है। व्यथित नारद ने सनत कुमार को बताया था कि वे ऋग्वेद सहित संपूर्ण वैदिक ज्ञान, भूत विद्या, इतिहास आदि सभी ज्ञान अनुशासन पढ़ चुके हैं, लेकिन चित्त में शांति नहीं है। ‘सनत कुमार ने कहा’ ये सब नाम हैं। नाम महत्वपूर्ण नहीं है। ‘उपनिषद की यह बात शेक्सपियर के कथन से मिलती है। नाम में अनेक झंझट हैं। ईश्वर भी एक नाम है। नाम रखते ही रूप आकार की समस्या बनती है। ईश्वर का भाव असीम है। सभी नाम रूप ससीम हैं। उनकी सीमा है। वैदिक चिंतन में ‘वह’ किसी नाम संज्ञा का सर्वनाम नही है। ऋषि का ‘वह’ यत्र तत्र सर्वत्र व्यापी है। ‘वह रस’ की अनुभूति गहरी है। रूप, रस, गंध, श्रवण, स्पर्श आदि की अनुभूति का उपकरण हमारा इन्द्रियबोध है। रस व श्रवण की अनुभूति गहन संवेदनशीलता मे होती है। श्रवण का मजा गीत संगीत में है। गीत का शरीर और चित्त शब्दों से बनता है। संगीत सुर साधना का तप परिणाम है इसका चरम ओउम है। ओउम भारतीय सुरसाधना का अद्वितीय फल है। पतञ्जलि ने योग सूत्रों में प्रणव (ओउमकार) को परमसत्ता का वाचक कहा है -तस्यवाचक प्रणव:।
‘वह’ ज्ञान से भरापूरा है। वह संपूर्ण के भीतर है। वह बाहर से भी संपूर्ण को आच्छादित करता है। वह अणु से छोटा है। महत से बड़ा है। वह प्रत्यक्ष लोक के कण कण मे उपस्थित है। वह प्रत्यक्षलोक के परे सभी लोकों में भी गति करता है। वह गति करता है। गति नहीं भी करता। वह दूर से भी अति दूर है। वह निकट से भी निकट है। वह संपूर्ण जगत के भीतर परिपूर्ण है और बाहर से भी पूर्ण है। भिन्न भिन्न रूपों मे भी वही रूप रूप प्रतिरूप है। वह रूप, रस, शब्द, गंध, स्पर्श का दाता विधाता है। वह सृष्टा और प्रलयकर्ता है। वही अग्नि का ताप है। वही इन्द्र का पराक्रम है। भारतीय मनीषा प्रश्नाकुल रही है कि हम किसकी उपासना करें-कस्मै देवाय हविषा विधेम। मुझे भीतर से उत्तर मिलता है कि हम इसी ‘वह’ देव की उपासना करें।