आज भी बहुत से अज्ञानी मनुष्य योग या योगासन का नाम सुनकर चौंकने लगते हैं। उन्हें भय लगने लगता है कि योग या योगासन उन्हें घर-परिवार, समाज से दूर कर देगा, संन्यासी बना देगा जबकि योग का अर्थ है, आपस में मिलाना, एकता कराना। ‘योगासन’ योग की प्रथम सीढ़ी है।
विज्ञान ने कितनी ही प्रगति कर ली हो लेकिन वह आज भी मृत्यु और जीवन को वश में नहीं कर पाया है। अच्छे-अच्छे वैज्ञानिक और डॉक्टर अपनी माथापच्ची करके परलोक सिधार गए हैं। बड़े से बड़ा डॉक्टर भी अपनी और अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु को नहीं रोक सका है। उसे भी अदृश्य सत्ता पर विश्वास करना पड़ा है।
योगासन करने से पूर्व कुछ सावधानियां
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योगासन की शुरूआत किसी योग विशेषज्ञ की देखरेख में करनी चाहिए।
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योगासन करने से पूर्व मोटी दरी/चार तह वाला कंबल/चटाई या पतला रुई का गद्दा आदि समतल भूमि/फर्श पर बिछाकर करना चाहिए। आसपास के वातावरण में सफाई अवश्य रहनी चाहिए, यानी आस-पास के वातावरण की स्वच्छता।
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योगासन करने से बीस-तीस मिनट पूर्व एक-डेढ़ गिलास गुनगुना पानी अवश्य पियें। इससे शरीर के विकार निकलने में सुविधा होती है।
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गर्मी की ऋतु में खुली जगह या पार्क आदि में योगासन करें।
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शीत या वर्षा ऋतु में हवादार कमरे में योगासन करने चाहिए।
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कोई भी आसन बलपूर्वक नहीं करना चाहिए बल्कि धीरे-धीरे शरीर को लोचदार बनाकर बढ़ाना चाहिए।
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आसन करते समय शरीर पर वस्त्र कम और सुविधाजनक हों, यानी ढीले-ढाले हों।
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वृद्ध और कमजोर व्यक्तियों को योगासन एवं प्राणायाम अल्प मात्रा में करने चाहिए। दस या उससे अधिक उम्र के बालक- बालिकाएं अभ्यास कर सकती हैं।
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महिलाएं जब गर्भवती हों, उन्हें कठिन योगासनों का अभ्यास कदापि नहीं करना चाहिए।
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जो व्यक्ति हृदय रोगी हों, उन्हें शीर्षासन, धनुरासन, शलभासन आदि नहीं करने चाहिए। जिनके कान बहते हों, नेत्रों में अधिक लाली हो, हाथों में सूजन और अम्लता आदि हो, उन्हें भी शीर्षासन नहीं करना चाहिए।
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लंबे समय तक जिन्होंने सूर्य-स्नान (धूप सेकी हो) किया हो, उन्हें भी तुरंत योगासन नहीं करना चाहिए, यानी उसके तुरंत बाद नहीं करना चाहिए।
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भोजन के छ: घण्टे के बाद तथा दूध पीने के ढाई घण्टे बाद या बिलकुल खाली पेट रहने पर ही आसन करने चाहिए।
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शीत ऋतु में योगासन करने के बाद तुरन्त खुले शरीर, खुले स्थान में न निकलें।
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आसन करते समय चित्त शांत होना चाहिए।
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कठिन आसन करने के बाद या थकान होने पर शवासन बीच-बीच में अवश्य करना चाहिए।
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आसन उतनी देर तक ही करना चािहए, जब तक शरीर में थकान न हो। एक सामान्य व्यक्ति को अधिक से अधिक एक घंटा, उससे कम आधा घण्टा या कम से कम 10 मिनट आसन अवश्य करने चाहिए।
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आसन करने के आधा-पौने घण्टे बाद जलपान या भोजन कर सकते हैं। जहां तक हो सके सादा भोजन, जिसमें अंकुरित अनाज, फल, दूध आदि सम्मिलित हों, करें। चाय का सेवन न करें तो बहुत अच्छा है।
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आसन करते समय आंखें बंद या खुली रखी जा सकती हैं लेकिन आंखें बंद रखकर करने से अधिक लाभ मिलता है, यानी मन की एकाग्रता बढ़ती है।
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सामान्यत: आगे झुकने वाले आसनों को करते समय श्वास को बाहर निकाल दीजिए तथा पीछे की ओर झुकते या बैठते समय श्वास भर सकते हैं। श्वास-प्रश्वास प्राय: नासिका से ही लेना चाहिए, केवल विशेष क्रियाओं, मुद्राओं और आसनों को छोड़कर।
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जो मोटापे से ग्रसित हों, उन्हें हलासन, विपरीतकरणी, मयूरासन आदि अल्प मात्रा में करने चाहिए।
जिन्हें लगातार सर्दी-जुकाम या सिरदर्द बना रहता हो, उन्हें शीर्षासन, सर्वांगासन, चक्रासन आदि आसन नहीं करने चाहिए।
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जिन्हें गठियाबाय (पैरों के जोड़ों में दर्द) हो, उन्हें पद्मासन, वज्रासन, सुप्त वज्रासन आदि नहीं करने चाहिए।
जिनका यकृत, अण्ड या तिल्ली वृद्धि हो, अल्सर, हख्नया (आंतों का बढ़ जाना) आदि रोग हों, उन्हें भुजंगासन, हलासन, पश्चिमोतानासन आदि नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे आसनों से पेट पर अधिक दबाव पड़ता है जिससे नुकसान होने का खतरा सम्भव है।
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योगासनों के करने के बाद शवासन अवश्य करें। थोड़ी देर शवासन करने के बाद जब लगे कि शरीर हल्का-फुल्का हो गया है, तब आखें बंद रखते हुए ही ईश्वर का स्मरण कर लीजिए और भावना करिए कि ईश्वर सम्पूर्ण शरीर को स्वस्थ कर रहा है। भावना को पैरों से शुरू करते हुए ऊपर की ओर को बढ़ाते जाइए और सभी इन्द्रियों को भावित करते हुए शीर्ष (सिर) तक आइए।
आसनों द्वारा यौवन की रक्षा
यौवन का का तात्पर्य-बीस पच्चीस वर्ष के युवक-युवती से ही नहीं है। यहां यौवन का तात्पर्य है कि किशोर वय से लेकर बुढ़ापे तक (यानी जब तक जीएं) मनुष्य अशक्त न हो, और अपना जीवन हंसी-खुशी बिताकर ईश्वर में मिल जाए।
यह यौवन एक युवक से भी छिन सकता है तथा सत्तर वर्ष के बुजुर्ग में भी रह सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक पच्चीस वर्ष का युवक गलत आचरणों पर चलकर खान-पान भी दोषपूर्ण कर रहा है तो उसे जवानी में ही बुढ़ापा आ जाएगा, उसे अपना जीवन निराशाओं से भरा बोझिल लगने लगेगा।
दूसरी तरफ एक सत्तर-अस्सी वर्ष वय के मनुष्य में अच्छे आचरण और संतुलित खान-पान व योगासन आदि करते हुए नियमितता बरती जा रही है तो वहां जीवन में कभी निराशा और हताशा जैसी स्थिति कभी नहीं आएगी। यही है यौवन जिसे हम योगासनों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं।
इनके अभ्यास का प्रभाव शरीर के सभी अंगों पर पड़ता है तथा मोटे (स्थूल) मनुष्य का मोटापा कम होता है और दुबले-पतले (कृश) मनुष्यों को हृष्ट-पुष्ट बलवान बनाने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
इनकी कल्पना में लाखों वर्ष का निचोड़ भरा पड़ा है। प्रकृति का निरीक्षण और अध्ययन करने के पश्चात ही साधक (अभ्यास करने वाला) शारीरिक बल, आकार और मानसिक स्थित के अनुकूल स्वास्थ्य को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए योग से जुड़ा है। इनका आविष्कार सचमुच ही बहुत बड़ी उपलब्धि है।
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