पाकिस्तान का राजनीतिक और आर्थिक संकट एक-दूसरे के साथ संबद्ध रहे हैं। प्राय: सभी जानकार स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक अस्थिरता ने सीधे तौर पर पाकिस्तान में आर्थिक संकट उत्पन्न नहीं किया है, किंतु इसमें इजाफा अवश्य किया है। एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल अप्रैल में इमरान खान के सत्ता से हटने तक जीडीपी 6 फीसदी थी, जबकि चालू वित्तीय वर्ष में पाक की जीडीपी वृद्धि दर घटकर मात्र 0.6 फीसदी तक रहने का अनुमान है। विगत वर्ष आई बाढ़, भुगतान देय का संकट और राजनीतिक उथल-पुथल ने स्थिति को जटिल बना दिया है।
हाल ही में स्टेट बैंक आॅफ पाकिस्तान ने बताया था कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 4.19 अरब डॉलर रह गया है। जानकारों का कथन है कि यह धनराशि केवल एक महीने के आयात के लिए ही पर्याप्त है। पाकिस्तान को चीन से पहले ही दो अरब डॉलर की मदद मिल चुकी है। अरब अमीरात ने एक अरब डॉलर और सऊदी अरब ने एक अरब डॉलर की मदद पाकिस्तान को की है।
यह कहना मुश्किल है कि गहन आर्थिक संकट में दिवालिया होने के कगार पर खड़ा पाकिस्तान इस स्थिति से कब तक उभर पाएगा। अमेरिकी डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपया निरंतर गिर रहा है। खुले बाजार में एक डॉलर की कीमत 310 पाकिस्तानी रुपए हो गई, जबकि वर्ष 2022 के अप्रैल महीने में इमरान खान की सत्ता से बेदखली तक एक डॉलर की कीमत 182 पाकिस्तानी रुपयों के बराबर थी।
तोशाखाना केस के तहत इमरान खान को तीन साल की कैद-ए-बामशक्कत और एक लाख रुपए जुर्माना की सजा का ऐलान किया गया। पाकिस्तान की नेशनल असेंबली भंग करके आम चुनाव का ऐलान हुआ। कार्यवाहक प्रधानमंत्री पद पर बिलोचिस्तान आवामी पार्टी के सांसद अनवारुलहक काकड़ को राष्ट्रपति आरिफ अल्वी द्वारा मनोनीत किया गया।
उल्लेखनीय है कि पाक संविधान के तहत कार्यवाहक प्रधानमंत्री द्वारा नेशनल असेंबली भंग कर दिए जाने के बाद 90 दिनों के अंदर आम चुनाव आयोजित कराए जाते हैं। पाकिस्तान के राजनीतिक पटल पर इमरान खान की अनुपस्थिति ने मुस्लिम लीग और पीपुल्स पार्टी की स्थिति को शक्तिशाली बना दिया है। हालांकि इमरान खान और उनकी पार्टी तहरीक-ए- इंसाफ अनेक क्षेत्रों में कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं।
पाकिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता के कारणों की बात करें तो सबसे अहम कारण रहे हैं पाक फौज के हुक्मरान।फौजी हुक्मरानों का हस्तक्षेप तो नागरिक हुकूमत में भी निरंतर कायम बना रहता है। तीन दफा तो वहां फौजी हुक्मरानों ने सीधे तौर पर हस्तक्षेप कर फौजी हुकूमत कायम कर दी। फौजी हुक्मरानों का हस्तक्षेप तो प्रत्येक हुकूमत के दौर में चलता रहता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इमरान खान की हुकूमत भी वस्तुत: फौजी हुक्मरान ने ही कायम की थी। इमरान खान ने जब फौजी हुक्मरानों के हुक्म ठुकरा कर रूस के साथ दोस्ती बढ़ाने की ठानी तो फिर अपना नतीजा देख लिया। नवाज शरीफ के साथ भी फौजी हुक्मरानों द्वारा तकरीबन ऐसा ही सलूक अंजाम दिया था।
वस्तुत: पाक के राजनीतिक लीडरों का दौलत और सत्ता के प्रति अगाध लोभ-लालच ने पाक में राजनीतिक अस्थिरता को परवान चढ़ाया है। पाकिस्तान के लीडरों का चरित्र यकीनन प्रजातांत्रिक नहीं है, वरन वह सांमती रंग-ढंग से सराबोर है। तकरीबन प्रत्येक बड़े राजनीतिक लीडर पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे और साबित भी हुए। आम तौर ईमानदार करार दिए जाने वाले इमरान खान तो तोशाखाना सरीखे मामूली लालच के केस में फंस गए और सजा पा गए।
पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम लीग के बड़े सामंती नवाबों और जमींदारों ने कराया था, जोकि भारत के प्रति विषाक्त नफरत से लबरेज थे। वर्तमान दौर के पाक सियासतदानों और फौजी हुक्मरानों ने अपने फिरकापरस्त पुरखों की आत्मघाती परंपरा को बाकायदा कायम बनाए रखा है। इस्लाम के नाम पर कायम किया गया पाकिस्तान वस्तुत: अमेरिका की पुश्तपनाही में अंतरराष्ट्रीय जेहादी आतंकवाद का सबसे बड़ा किला निर्मित हो गया।
तालीबान दहशतगर्दों को तालीम और परवरिश फराहम कराने वाली पाक फौज आजकल अफगानिस्तान के तालिबान और पाक तालीबान से जंग में जूझ रही है, जिसमें अभी तक एक लाख से अधिक नौजवान हलाक हो चुके हैं। पाकिस्तान के बिलोचिस्तान और खैबर पख्तूनवा प्रांत दहशतगर्द जंग की ज्वाला में धधक रहे हैं। जेहादी दहशतगर्दी के दमखम पर भारतीय कश्मीर पर आधिपत्य करने का मंसूबा बनाने वाला पाकिस्तान कहीं अपने बलोचिस्तान और खैबर पख्तूनवा प्रांतों को ना गंवा बैठे, जैसा 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (बंगला देश) को गंवा दिया था।
अभी वक्त शेष है, जबकि दहशतगर्दी कोआखिरी सलाम कहकर, पाकिस्तान विश्व पटल पर अपनी रही सही साख बाकायदा बचा सकता है। फौजी हुक्मरानों के आधिपत्य से पूर्णत: मुक्त जनतंत्र के तहत पाकिस्तान पल्लवित हो सकता है। दहशतगर्दी ने ही पाकिस्तान को गृहयुद्ध में झोंक दिया है और उसकी अर्थव्यवस्था को कंगाली के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है।
भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्ते मधुर बन सकते हैं, यदि वह कश्मीर में सक्रिय दहशतगर्दों का परिपोषण और परिपालन एकदम बंद कर दे। कश्मीर के दहशतगर्दी से बलपूर्वक हड़पने लेने की प्रॉक्सी वॉर रणनीति का पूर्णत: परित्याग कर दे, तो फिर मुमकिन है कि भारत के साथ शांतिवार्ता संपन्न हो जाए और कोई समाधान का रास्ता निकल सकता है।
अन्यथा पाक अधिकृत कश्मीर को अपना अभिन्न भाग करार देने वाला, भारत कहीं बेहद परेशान होकर अपना सब्र ना खो बैठे, जिसकी बहुत बड़ी कीमत पाक को चुकानी पड़ सकती है। अमेरिका सहित पश्चिम के देश, पाक से विमुख हो चुके हैं, तभी तो पाकिस्तान को विश्व बैंक और आईएफएफ से कर्ज मिलना इतना मुश्किल हो गया। पाकिस्तान यकीनन चीन के क्लब में बाकायदा शामिल हो चुका है, अत: पाक को अनेक दशक तक पालने पोसने वाला पश्चिम जगत पाक से नाराज हो गया है।
इस्लामिक देशों के कूटनीतिक रिश्ते उत्तरोतर भारत के साथ शक्तिशाली हो जाने के कारण पाकिस्तान इस्लामिक दुनिया में भी अलग-थलग पड़ता जा रहा है। इस्लामिक राष्ट्रों ने सऊदी अरब की कयादत में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर विवाद का उल्लेख करना बंद कर दिया है। पाक के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मददगार रह गया, अब तो अकेला चीन जो अपने निजी फायदे के लिए ही किसी मुल्क की आर्थिक और सामरिक मदद किया करता है।
श्रीलंका इस तथ्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। जब श्रीलंका दिवालिया हुआ तो चीन ने कोई इमदाद नहीं की। यहां तक कि कर्ज के एवज में हबंनटोटा बंदरगाह हड़प लिया। पाकिस्तान के लिए भारत से बेहतर कोई दोस्त नहीं हो सकता। बशर्ते ऐतिहासिक नफरत और दुश्मनी को अलविदा कहकर भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाए।
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