ब्रिक्स का गठन एक ऐसे समय में हुआ था, जब दुनिया को नए भू-राजनैतिक नजरिए से देखा जा रहा था।आर्थिक प्रगति की वजह से दुनिया के बहुत सारे देश तेजी से उभर रहे थे। वे न सिर्फ आर्थिक विकास में अपना हिस्सा चाहते थे बल्कि विश्व राजनीति में भी अहम भूमिका निभाना चाहते थे। ब्रिक्स पांच विकासशील देशों का समूह है जो विश्व की 41 प्रतिशत आबादी, 24 प्रतिशत वैश्विक जीडीपी और 16 प्रतिशत वैश्विक कारोबार का प्रतिनिधित्व करता है। दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में 22-24 अगस्त के बीच ब्रिक्स शिखर सम्मेलन हुआ। कोरोना महामारी के बाद यह पहली बार है, जब इस शिखर सम्मेलन को व्यक्तिगत तौर पर कराया जा रहा है।
यह सभा अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक महत्वपूर्ण क्षण का प्रतीक है, क्योंकि विकासशील दुनिया के भीतर राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को मजबूत करने के संबंध में चर्चा हुई। इस 15वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का विषय ‘ब्रिक्स और अफ्रीका: पारस्परिक रूप से त्वरित विकास, धारणीय विकास और समावेशी बहुपक्षवाद के लिए साझेदारी’ है।
ब्रिक्स में शामिल देशों की सदस्य संख्या पांच से बढ़कर ग्यारह होने के उपलक्ष्य में 15वें शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया, यह इसकी वैश्विक स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में एक ठोस प्रयास को दर्शाता है। मिस्र, ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, इथियोपिया और अर्जेंटीना के ब्रिक्स में शामिल होने से मध्य-पूर्व, अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका में इस समूह का प्रतिनिधित्व बढ़ गया है। इनकी पूर्ण सदस्यता 1 जनवरी, 2024 से प्रभावी होगी।
पूर्व से सदस्य देशों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन तथा दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। ब्रिक्स के विस्तार को जी-7 देशों के समूहों को टक्कर देने के तौर पर भी देखा जा रहा है। क्योंकि जी-7 देशों में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। विश्लेषकों का मानना है कि यह ब्लॉक वैश्विक संतुलन बनाने के प्रयास में जियोपॉलिटिकल समस्या बढ़ा सकता है, क्योंकि रूस और चीन दोनों ही इसे अपने पक्ष में लाना चाहते हैं और इन दोनों का पश्चिम के साथ तनाव है।
ब्रिक्स का फिलहाल विस्तार तो हो गया है लेकिन कई सारे सवाल हमारे समक्ष मुंह बाए खड़े हैं। सबसे बड़ा सवाल तो समूह में शामिल नए सदस्य देशों के नियम के बारे में उठता है, क्योंकि इसके लिए कोई भी नियम नहीं है। ब्रिक्स से जुड़ने का कोई औपचारिक तरीका नहीं है। न तो देशों को कोई लिखित आवेदन देना होता है, न ही कोई खास शर्तें पूरी करनी होती हैं।
उसके बाद विस्तारित समूह सिर्फ संख्या बल बढ़ जाने से क्या अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा? क्या पहले से ही अलग-अलग धुरियों पर खड़े देशों के साथ कुछ और भूराजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों के भी समूह में शामिल होने से समूह वाकई मजबूत हो पाएगा? नए सदस्य देशों के पुराने देशों के साथ जो संबंध रहे हैं, उससे समूह की मूल भावना पर तो कोई असर नहीं पड़ेगा या फिर समूह गुटबाजी में उलझ कर तो नहीं रह जाएगा? इसके अलावा भी अनगिनत सवाल हैं जिनके जवाब आने वाले दिनों में सदस्य देशों को खोजने होंगे।
समूह के विस्तार के बाद भारत को यह प्रयास करना होगा कि उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रहे, क्योंकि विस्तारित देशों पर चीन अगर वर्चस्व रखता है तो उसका संगठन पर पकड़ मजबूत होगा। चीन को अपनी वैश्विक स्थिति बनाए रखने के लिए समूह की विशिष्टता को संरक्षित करने की आवश्यकता नहीं है।
चीन ने वर्षों से नए सदस्यों को एकीकृत करने और ब्लॉक को चीन के नेतृत्व वाले गठबंधन में बदलने का लक्ष्य रखा है। 2017 के बाद से, जब उसने ‘ब्रिक्स प्लस’ अवधारणा प्रस्तुत की, बीजिंग ने एजेंडे में विस्तार करने की मांग की है। यूक्रेन पर आक्रमण के बाद, रूस को भी विस्तार में गहरी दिलचस्पी हो गई है, क्योंकि यह देश को अलग-थलग करने के पश्चिमी प्रयासों का मुकाबला करने के लिए रूस-सहानुभूति वाला गुट बनाने में मदद कर सकता है।
भारत अपना भी हित देख रहा है और बाकी जिन देशों को मेंबरशिप दी गई है , उनका हित भी देख रहा है, क्योंकि उन सभी की इमर्जिंग इकोनॉमी है, विकासशील देश हैं। सभी विश्व में शांति और आर्थिक विकास के लिए सक्रिय भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं। भारत ब्रिक्स का विकास तो चाहता है लेकिन ब्रिक्स का विकास किसी खास गुट के खिलाफ ना हो कर एक सकारात्मक दृष्टिकोण को रखते हुए और सबके विकास की बात होनी चाहिए।
भारत को डर है कि चीन विस्तार के जरिए इसे अपने प्रभाव वाला मंच बनाना चाहता है। ब्राजील का भी कहना है कि हम ब्रिक्स को जी7, जी 20 या अमेरिका विरोधी संगठन नहीं बनाना चाहते। माना जा रहा है कि डॉलर के प्रभाव को कम करने के लिए चीन ब्रिक्स की स्थानीय मुद्रा पर भी बल दे रहा है।
तो क्या रूस और चीन अमेरिका के खिलाफ एक मंच तैयार करने के रूप में इसे देख रहे हैं? और भारत की इसमें क्या भूमिका हो सकती है कि चीन इसे अमेरिकी विरोधी गुट न बना पाए? इस प्रश्न पर भी भारत को गहन चिंतन मनन कर के ही अपनी नीतियों को विस्तार देना होगा।
भारत की विदेश नीति की बुनियाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता में रखी थी। अर्थात भारत किसी भी गुट में शामिल नहीं होगा। लेकिन वर्तमान में भारत के विदेश मंत्री अब इसी नॉन अलाइनमेंट यानी गुटनिरपेक्षता को मल्टीअलाइनमेंट यानी बहुध्रुवीय कह रहे हैं। यानी भारत किसी एक गुट के साथ नहीं रहेगा बल्कि अपने हितों के हिसाब से सभी गुटों के साथ रहेगा।
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