- गरीब बच्चों का किताबों से नहीं दूर-दूर तक का नाता
- शहर में सैकड़ों मासूमों का भविष्य खतरे में, पढ़ाई छोड़ कबाड़ की बिक्री कर पाल रहे परिवार का पेट
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: शहर को स्मार्ट सिटी बनाने का ख्वाब दिखाकर राजनीतिक रोटियां सेकने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं को शायद कबाड़ इकट्ठा कर जिंदगी गुजर-बसर करने वाले इन मासूम बच्चों की परवाह नहीं है।
जिस उम्र में खेल-खिलौने और किताबें इन बच्चों के हाथों में होनी चाहिए थी, अफसोस है कि उस उम्र में शहर के सैकड़ों बच्चे कबाड़ बेचकर अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं। सूरज की पहली किरण से लेकर रात के अंधेरे तक सैकड़ों मासूम कूड़े के ढेर में अपना भविष्य तलाशते नजर आते हैं।
केन्द्र एवं राज्य सरकार ने शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दे रखा है, गरीबों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने को लेकर भी अधिनियम को अमलीजामा भी पहनाया हुआ है, इतना ही नहीं गरीबों के कल्याण एवं सहायता के लिए कई योजनाएं भी चलाई जा रही है।
इसके बावजूद गरीब तबके के लोगों की गरीबी अभी तक दूर नहीं हो पाई है। गरीब और गरीब होता चला जा रहा है और इनके बच्चे आज भी कूड़े व कबाड़ में अपना भविष्य तलाशते नजर आते हैं।
सरकार और सरकार के नुमाइंदे इस बात का जिक्र तक भी नहीं करते कि समाज में एक ऐसा भी वर्ग है, जिनका जीवन कूड़े के ढेर पर टिका हुआ है।
कूड़े के ढेर से ही ये तबका अपनी रोजी-रोटी कमाने के जुगाड़ में लगा रहता है। आज भी शहर के सैकड़ों मासूम कूड़े के ढेर से बीमारियों को चुनौती देकर अपने भविष्य के साथ लड़ाई लड़ रहे हैं।
वहीं, शहर के जिम्मेदारों व आम जनता द्वारा कूड़े कचरे के ढेर से अपनी जिंदगी चलाने वालों को मानवीय संवेदनाओं से परे समझा जाता है। वहीं जहां तक शिक्षा के अधिकार की बात है तो सरकारी आंकड़ों में सब कुछ सही दर्शाया जा रहा है। जबकि इन मासूमों का किताबों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
कूड़ा-कचरा एकत्रित करके ये बच्चे अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं, लेकिन अब सवाल ये बनता है कि क्या शहर का प्रशासन और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा इस बाबत कोई ठोस कदम उठाया जाता है या फिर इतिहास के पन्नों पर इन मासूमों का नाम सिर्फ और सिर्फ एक कबाड़ी के रूप में दर्ज होगा।