- महामारी के हालातों में गरीबों को जकात-फित्र दे मालदार
- इंसान के माल ओ दौलत को शुद्ध कर बरकत करती है जकात
अनवर अंसारी |
शामली: कोरोना वायरस जैसी इस महामारी में लोगों को अपनी सांसों का जरा भी भरोसा नहीं है। हर तरफ जब मौत अपना तांडव मचा रही है ऐसे माहौल में इंसान खुद को अल्लाह, भगवान के भरौसे छोडे हुए है। मुस्लमानों के लिए अपने गुनाओं से तौबा करने के लिए पाक महीना रमजानुल मुबारक चल रहा है।
मुसलमान रोजे-नमाज कर अल्लाह से अपने गुनाओं की तौबा कर सकता है। साथ ही अल्लाह के बताए एक आमाल यानि जकात, सदका ए फित्र से भी अल्लाह को राजी कर सकता है। जकात यानि मालदारों पर गरीबों के लिए अल्लाह का वो टैक्स जिसे हर मालदार को देना लाजमी है।
इस्लाम के मानने वाले बखूबी जानते हैं कि कोरोना महामारी के बीच भी अगर मालदार जकात नहीं निकालेगा तो अल्लाह की नजर में वो गुनाहगार है और अल्लाह उसके माल ओ दौलत में लगातार गिरावट करेंगे, जिसका वह खुद जिम्मेदार होगा।
जकात के बारे में हदीस में आया है कि जिसके पास माल हो और उसकी जकात नहीं निकाली गई कयामत के दिन उस पर बड़ा अजाब होगा। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया है कि जिसके पास सोना-चांदी या माल हो और वह उसकी जकात नहीं देता तो कयामत के दिन उसके लिए बड़ा अजाब होता है।
किस पर वाजिब है जकात
जिसके पास साढ़े 52 तोला चांदी या साढ़े 7 तोला सोना हो और एक साल तक बाकी रहे तो साल गुजरने पर उसकी जकात देना वाजिब है। इसमें कर्ज का भी मसला है। जिसमें नगद रुपया या सोना-चांदी किसी को कर्ज दिया या व्यापार का माल बेचा, उसकी कीमत बाकी है और एक साल के बाद या दो तीन वर्ष के बाद वसूल हुआ और उसकी मिक्दार साढ़े 52 तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोने के बराबर हो तो पिछले सालों की जकात देना वाजिब है।
इन्हें जकात देना जायज है
जिनके पास एक दिन के गुजारे के लिए भी माल नहीं है उसे गरीब कहते हैं। ऐसे लोगों को जकात देना जायज है। कोई इंसान कारोबार या मेहनत मजदूरी करता है लेकिन उससे उसके बच्चों के खाने-पीने का गुजर बसर नहीं होता और उस पर जकात भी वाजिब नहीं है तो ऐसे इंसान को जकात दे देनी चाहिए।
एक बात का खास ध्यान रखें जकात के पैसे मस्जिद बनवाना या किसी लावारिस मुर्दे को कफन-दफ्न कर देना, मुर्दे की तरफ से उसका कर्ज अदा कर देना या किसी नेक काम में लगा देना दुरुस्त नहीं। जकात गरीब को ही दी जा सकती है।
इसके अलावा जकात और सदका खैरात में सबसे ज्यादा अपने रिश्ते-नाते के लोगों का ख्याल रखें। एक शहर की जकात दूसरे शहर में भेजना मकरूह है। हां अगर दूसरे शहर में उसके रिश्तेदार रहते हैं, उनको भेजा जा सकता है।
सदका-ए-फित्र जायज
जो मुसलमान इतना मालदार हो कि उस पर जकात वाजिब हो या जकात वाजिब नहीं लेकिन जरूरी सामानों से ज्यादा इतनी कीमत का माल या सामान है जितनी कीमत पर जकात वाजिब होती है, तो उस पर ईद के दिन सदका देना वाजिब है। चाहे वह व्यापार का माल हो या न हो और चाहे साल पूरा गुजर चुका हो या न गुजरा हो। उस पर सदका ए फित्र जरूरी है।