रोग, और मृत्यु पर विजय पाने के लिए महात्मा बुद्ध ने बहुत कोशिशें कीं। वह न जाने कहां-कहां गए, कहां-कहां नहीं भटके! अंत में गया के पास वन में घोर तप शुरू कर दिया। इतना तप किया कि उनका शरीर बिल्कुल सूख गया। लेकिन वह अडिग रहे। लक्ष्य पर डटे रहे।
शरीर एक तरह से अस्थिपंजर हो गया, उन्होंने कठोर-साधना को कष्ट नहीं माना। सांसारिक प्रलोभन उन्हें कभी रिझा न सके। एक दिन जब वह गहन तपस्या में लीन थे, उनके कानों में कुछ गायकिाओं के गाने की आवाज पड़ी।
वह उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने की कोशिश करने लगे। गायिकाएं पास आती गई, तो आवाज भी साफ होती गई। जब वह उनके बिल्कुल पास गुजरीं, तो वे अपनी अपनी भाषा में गीत गा रही थीं।
गीत का भाव था, ‘सितार के तारों को ढील मत दो। स्वर ठीक नहीं निकलता; पर उन्हें इतना कसो भी नहीं कि टूट जाएं।’ बस, महात्मा बुद्ध को यहीं से मार्ग मिल गया।
उन्होंने घोर तपस्या, निद्रा, भोजन आदि के त्याग को तिलांजलि दे, नियमित निद्रा और संयमित भोजन को अधिक व्यावहारिक समझा।
फिर वह जीवन भर मध्यम मार्ग पर ही चलते रहे। कहने का आशय यह है कि रास्ता वही सही है, जिसमें इंसान खुद भी सही रहे और दूसरे भी खुश रहें।
किसी को ज्यादा ढील देना भी सही नहीं होता और ज्यादा सख्ती भी नुकसान कर जाती है। हर चीज एक अनुपात में ही सही रहती हैं। खाना, सोना और काम करना आदि का यदि सही सीमा तक प्रयोग करेंगे, तो जीवन में कष्ट कम आएंगे।