एक महात्मा थे। उनकी तपस्या का यह प्रभाव था कि हिंसक हिंसा को भूल गए। शेर और बकरी, सर्प और मेंढ़क अपने जन्मजात बैर को भूल गए। उनकी तपस्या से इंद्र का आसन डोलने लगा। इंद्र ने अपने ज्ञान से देखा कि अब उसका पद टिक नहीं सकेगा। वह एक बटोही के रुप में महात्मा के आश्रम में आया। वहां के वातावरण को देखकर वह और अधिक चिंतित हो उठा। महात्मा की तपस्या की यही स्थिति रही, तो निश्चय ही उनका आसान अधिक दिन टिक नहीं सकेगा। उसने एक चाल चली। महात्मा के पास आकर वह बोला, ‘महाराज, मैं जरा शहर में जा रहा हूं, अपनी तलवार आपके पास छोड़े जा रहा हूं। यदि आप इसका ध्यान रख सकें, तो बड़ी कृपा होगी।’ महात्मा ने सहज रूप ने इसे स्वीकार कर लिया। इंद्र चला गया। महात्माजी ने घंटे दो घंटे तलवार का ध्यान रखा, पर इंद्र नहीं आया। फिर तो दिन-पर-दिन और महीनों-पर-महीने बीतते चले गए। महात्माजी जहां भी जाते, तलवार को साथ ले जाते। आश्रम में भी आते तो उसका ध्यान रखते। उनकी साधना का क्रम भंग हो गया। जो मन भगवान में लीन रहता था, वह तलवार में लीन रहने लगा। इंद्र का आसन डोलना बंद हो गया। उधर आश्रम हाल-बेहाल हो गया। तपस्या के प्रभाव से जो हिंसक जीव हिंसा और जन्मजात बैर को भूल बैठे थे, वे फिर एक-दूसरे को अपना दुश्मन मानने लगे। इंद्र का जाल काम कर गया। महत्वाकांक्षा की तलवार भी कुछ ऐसी ही होती है, जो व्यक्ति को अपने कर्तव्य से विमुख कर महत्व-प्राप्ति के लिए उचित-अनुचित हर कार्य में प्रवृत्त कर देती है।
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