सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो लोकतंत्र की राजनीति में सक्रिय राजनीति वृहद आकार में किया गया लोककल्याण का अनूठा यज्ञ ही है। इस बात को एक प्रकार से कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि सक्रिय राजनीति किसी तपोसाधना से कहीं कमतर नहीं होती। सकारात्मक रूप से विराट लक्ष्य को केंद्रित कर समाज व राष्ट्र के संपूर्ण कल्याण हेतु अपना सर्वस्व समर्पण करने की भावना के साथ राजनीति में अपनी आहुति का भाव, कोई साधारण तपोसाधना नहीं होती। आध्यात्म की दुनिया में आमतौर पर वैराग्य धारण करना आत्मकल्याण के लक्ष्य को लेकर ही होता है। लेकिन लोकतंत्र में राजनीति एक ऐसा माध्यम है जहां जनकल्याण की भावना के साथ व्यापक जनहित के प्रति अपने मन-वचन-काय की आहुति दी जाती है। बहुत संभव है कि राजनीति में सक्रियता को इस दृष्टि से शायद सोचा नहीं गया हो। लोकतंत्र के हवन कुंड में सर्वस्व समर्पण की आहुति उपरांत सिद्धि की प्राप्ति के रूप में देश प्रदेश का नीति नियंत बन जाना, तप की सार्थकता है लोकतंत्र की राजनीति में आम नागरिकों को प्राप्त निर्वाचन का अधिकार प्रकारांतर से लोकतंत्र की प्राणवायु है। लेकिन वर्तमान दौर की राजनीति में तमाम विकृतियों के चलते संभ्रांत एवं प्रबुद्ध समझे जाने वाला एक बड़ा वर्ग राजनीति के प्रति विरक्ति भाव अपनाए हुए हैं।
यह स्थिति लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा के अनुरूप नहीं कही जा सकती। बावजूद इसके स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में जनमत ने अपने बहुमत के माध्यम से समय-समय पर राजनीतिज्ञों को करारा सबक भी सिखाया है। लेकिन केवल इसी आधार पर राजनीतिक जनजागृति की पूर्णता के प्रति हम आश्वस्त नहीं हो सकते। मात्र मताधिकार का प्रयोग कर लेने के उपरांत राजनीतिक गतिविधियों के प्रति अनदेखी अंतत: नागरिकों के लिए भारी सिद्ध होती है। इस स्थिति को बदले जाने की जरूरत है। दुर्भाग्य से नागरिकों का एक बड़ा वर्ग राजनीति में यथास्थितिवाद को प्रश्रय देता रहा है।
जरूरत इस बात की है कि राजनीति के सकारात्मक पक्ष को पुनर्स्थापित करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाया जाए। दरअसल राजनीति में जब तक शुचिता और पवित्रता का वातावरण निर्मित नहीं कर दिया जाता तब तक राजनीतिक विशुद्धि दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं है। जरूरत इस बात की है कि राजनीति में सेवा और समर्पण के मनोभावों के साथ समाजसेवा के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्तित्व राजनीति को सही दिशा देने के लिए आगे आए। जब समाज तथा राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने की प्रतिबद्धता के साथ राजनीति में विभिन्न चेहरे सक्रिय होंगे तब आम नागरिकों को विकल्प भी मिलते ही चले जाएंगे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते वैचारिक असहमतियों का स्वागत करते हुए किसी भी विवादित मुद्दे पर सर्वसम्मत निराकरण पर जोर रहना चाहिए। व्यक्तिगत असंतुष्टि को एकबारगी नजरअंदाज किया जा सकता है किंतु सकल समाज या राष्ट्र के एक बड़े धड़े की असंतुष्टि का त्वरित निराकरण, राजनीतिक प्राथमिकताओं में शुमार किया जाना चाहिए। यह माना जा सकता है कि संपूर्ण को संतुष्ट रखना दुष्कर है लेकिन बहुमत के अनुरूप आचरण और व्यवहार से अपूर्ण को भी पूर्ण किया जा सकने की राजनीतिक क्षमता का परिचय दिया जाना चाहिए।
दरअसल राजनीति भी किसी तप आराधना से कम यू नहीं होती क्योंकि सिद्धत्व को प्राप्त होना आध्यात्मिक तथा राजनीतिक लक्ष्य की दृष्टि से समान समझा जा सकता है। दोनों ही का अपना शाश्वत महत्त्व है। एक और अलौकिक दृष्टि है तो दूसरी और लौकिक दृष्टि है, लेकिन अंतत: जनकल्याण का परम लक्ष्य ही सर्वोपरि है। कुल मिलाकर देश प्रदेश के राजनीतिक वातावरण में आमूलचूल परिवर्तन समय की मांग है। वर्तमान दौर में की जाने वाली राजनीति में विभिन्न राजनीतिज्ञों का सत्ता के प्रति आसक्ति भाव उचित-अनुचित में भेद नहीं कर रहा।
सत्ता का व्यापक जनहित के साधन के बजाय स्वहित हेतु साध्य बन जाना, गंभीर चिंता का विषय है। आज नहीं तो कल, लेकिन इस संदर्भ में हमें गंभीरतापूर्वक संज्ञान लेना होगा। अन्यथा राजनीतिक विकृतियों के जाल का जंजाल लोकतंत्र की मूल भावना को अस्त-व्यस्त करते हुए निकट भविष्य में इसकी प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा सकता है। अब समय आ गया है कि भटके हुए राजनीतिज्ञों को सही राह बतलाते हुए उनके ह्रदय परिवर्तन हेतु अनुरूप वातावरण का सृजन किया जाए। यह जरूरी है कि आम नागरिक सोच समझकर व्यापक दूरदर्शिता के साथ समय-समय पर होने वाले चुनावों में मताधिकार का उपयोग करें। अन्यथा लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र के सौदागर मतदाताओं के विश्वास को निरंतर छलते ही रहेंगे। आशा की जानी चाहिए कि लोकतंत्र के महायज्ञ में मताधिकार की आहुति से सकारात्मक राजनीति को निरंतर प्रोत्साहित किया जाए।