अशोक गौतम |
हिंदी साहित्य के लेखकीय संकट को झेलते हे इनके उनके पाठको! मुझमें तमाम लेखकीय अयोग्यताएं होने के बाद मैं अपने पूरे होशोहवास में साहित्य अकादमी की प्राचीर से घोषणा करता हूं कि मैं अयोग्य लेखक होने के बाद भी अपने लेखकीय जीवन से कुशल राजनीतिज्ञ की तरह त्यागपत्र नहीं दूंगा। इनके उनके त्यागपत्र! त्यागपत्र! चिल्लाने से जरा भी विचलित नहीं होऊंगा। राजनीति और लेखन में किसी के कैसे भी शिखर पुरुष होने पर गला फाड़-फाड़ कर त्यागपत्र मांगने वालों की कमी नहीं। एक पत्थर उखाड़ो तो हजार निकल आते हैं।
चूंकि अयोग्य लेखक होना ही मेरी सबसे बड़ी योग्यता है और ये ही मुझे दूसरे लेखकों से बिल्कुल अलग करती है। कचरा लेखन ही मेरी पहचान है, मेरी शान है। कचरा मेरा पर्सनल मामला है। अत: ये वो कौन होते हैं मेरे पर्सनल कचरे मामले में अपनी कटी टांग अड़ाने वाले? इसलिए सबकी खैरियत इसी में है कि इस बात को लेकर मुझ पर कारण लेखकीय मैदान छोड़ने को कोई दबाव न डाला जाए। बात-बात पर सही मायनों में मुझे जलील कर यह बताने की कुचेष्टा न की जाए कि मैं एक अयोग्य लेखक हूं। मैं अपने बारे में आपसे सौ गुणा जागरूक हूं।
वैसे यहां योग्य बनकर ज्यादा दिन नहीं जिया जा सकता। मुझ पर विश्वास नहीं तो कुछ दिन अपने को योग्य बनाकर जीने की कोशिश कर लीजिए। असल में देर-सबेर हर योग्य को अपनी योग्यता का मुंडन करवा अयोग्यों के बहुमत में शामिल करना ही पड़ता है। इसे उसकी जरूरत कहिए या फिर मजबूरी। समाज और सरकार योग्यों से नहीं, बहुमत से चला करते हैं दोस्तो!
हे मेरे लेखकीय दुश्मनो! भले ही मैं जितना भी अयोग्य लेखक हूं, पर हर अखबार, पत्रिका, पेड गोष्ठियों में दौड़ तो रेस के घोड़ों से भी तेज रहा हूं! क्या तथाकथित अयोग्य होने के बाद भी मेरी यह सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धि नहीं?
हे मेरे मुंह आगे के बंधुओ! माफ करना! वैसे आप कौन होते हो मेरे लेखकीय जीवन को अयोग्य कहने वाले! जब तक मैं खुद स्वीकार नहीं कर लेता कि मैं एक सफल अयोग्य लेखक हूं, तब तक मैं अपने लेखकीय करिअर से इस्तीफा नहीं दूंगा। राजनीति और लेखन में किसीके चीखने चिल्लाने से इस्तीफे नहीं दिए जाते। कोई शर्म के मारे खुद इस्तीफा दे दे तो दे दे।
सच देखा जाए तो यहां योग्य कौन है? सब खींच खांच के ही तो अपनी अयोग्यताओं को अपनी आस्तीन में छिपा अपने को योग्य घोषित, पोषित किए हुए हैं। हर फील्ड यहां ऐसे ही चल रही है, ऐसी ही चल रही थी और दूर भविष्य में भी ऐसे ही चलती रहेगी। इसलिए अयोग्य को अगर सफल होकर जीना हो तो उसे अपनी नजरों में भयंकर योग्य होकर जीना चाहिए।
वैसे यहां कौन ऐसा लेखक है जिसने आज तक बस, मौलिक ही मौलिक ही लिखा हो? जिसने कभी भी कहीं से मार मूर कर अपने नाम से न छपवाया हो? अगर कोई ऐसा हो तो वह सामने आए और मुझसे लेखन के मैदान से इस्तीफे की मांग करे।
आज का जमाना मौलिकता का नहीं, गूगल का जमाना है। सो पता चला जाता है। इसीलिए आज के योग्य लेखक उतना लिखते नहीं जितना इस बात को लेकर सचेत रहते हैं कि इनका उनका चुराकर मौलिक लिखा कहीं किसी और ने चुरा अपने नाम से मौलिक बना कहीं छपवाया तो नहीं।
और वे जो मुझे अयोग्य लेखक घोषित करने के बाद मेरी लेखकीय क्षमताओं को हाशिए पर धकेलने का कुप्रयास करेते मेरे प्रिय संपादकों से आग्रह कर रहे हैं कि मैं एक अयोग्य लेखक हूं, मुझे पढ़ने के बाद भी न छापा जाए तो उनको मेरे शहर के पीपल के नीचे वाले बाबा की तरह मेरा खुला चैलेंज है कि वे लेखन के क्षेत्र में पहले अपनी योग्यता, मौलिकता सिद्ध करके दिखाएं, उसके बाद मुझसे लेखकीय करिअर से इस्तीफे की मांग करें। वर्ना जब तक मेरी उंगलियों में टाइप करने की पावर रहेगी, तब तक मैं इसी तरह का दोयम दर्जे का लेखन कर हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि करता रहूंगा।
इस धरा पर राजनीति और लेखन ही दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां इस्तीफे मांगे तो जाते हैं, पर अपनी मर्जी के बिना दिए नहीं जाते। इन व्यवसायों में उम्र का कोई बंधन नहीं होता। इन फील्डों में कई तो मैंने मरने के बाद भी लिखते और राजनीति करते साक्षात देखे हैं।