सतीश सिंह |
भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय का हिंदी पत्रकारिता विभाग इस साल मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती बड़े धूमधाम से मना रहा था। इकतीस जुलाई को प्रेमचंद जी की जयंती थी, लेकिन 1 जुलाई से ही प्रेमचंद जी के रचना संसार पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाने लगा था। प्रेमचंद जी कहानियों पर आधारित एक भाषण प्रतियोगिता का आयोजन शहर के राजभवन मार्ग में स्थित रवीन्द्र भवन में किया जाना था।
मनीष को इस प्रतियोगिता में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। मनीष, भोपाल के कवि सम्मेलनों, मुशायरों और सम्मेलनों की धड़कन था। उसके बिना कोई भी कार्यक्रम अधूरा माना जाता था। मनीष भी बहुत खुश था, क्योंकि जिस विश्वविधालय से उसने पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी की थी, वहां वह मुख्य अतिथि बनकर जाने वाला था। मनीष भोपाल में सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक में उप महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत था, लेकिन साथ में वह एक लंबे समय से स्वतंत्र लेखन भी कर रहा था। वह मुख्य रूप से बैंकिंग और आर्थिक विषयों पर लेखन करता था। लेखन की वजह से देश के कई नामचीन हस्तियों के साथ उसका उठना-बैठना था। दर्जनों पुरस्कार उसे मिल चुके थे। कई फिल्मों के गीत और स्क्रिप्ट वह लिख चुका था। वॉलीवुड के बड़े कलाकारों के साथ उसके मधुर संबंध थे।
इकतीस जुलाई को सुबह से ही बारिश हो रही थी। शुक्रवार का दिन था। बॉस को पहले ही मनीष ने बता दिया था कि वह आज आधे दिन की छुट्टी पर रहेगा। पूरे दिन की छुट्टी मिलना मुश्किल था। काम की अधिकता और प्रतिकूल माहौल की वजह से बड़ी कठिनाई से मनीष सही समय पर रवींद्र भवन के लिए आॅफिस से निकल सका। लेखन की वजह से आॅफिस में मनीष के कई दुश्मन पैदा हो गए थे। इसलिए,वह आॅफिस में अपने लेखकीय गतिविधियों के बारे में किसी से कोई चर्चा नहीं करता था। सहकर्मियों को लगता था मनीष आॅफिस में भी लेख लिखता रहता है। नहीं तो कोई इंसान बैंक जैसे संस्थान में काम करते हुए नियमित रूप से लेखन कैसे कर सकता है?
किसी तरह मनीष निर्धारित समय पर रवींद्र भवन पहुंच गया। भारी बारिश होने के बावजूद भी 100 से अधिक छात्र-छात्राएं निर्धारित समय से पहले रवींद्र भवन पहुंच चुके थे। समय पर कार्यक्रम शुरू हो गया। छात्र-छात्राओं के बीच गजब का उत्साह था। जिनकी बारी बाद में आने वाली थी वे भाषण की तैयारी में लगे हुए थे। चूंकि, इस प्रतियोगिता में प्रोफेसर भी हिस्सा लेने वाले थे, इसलिए,प्रोफेसर भी भाषण की तैयारी में पीछे नहीं थे। कहानी का वाचन बिना देखे करना था। निर्णायक को नंबर, प्रतियोगी के आत्मविश्वास, कंटेंट,कहानी का विश्लेषण, तार्किकता, समय का अनुपालन आदि मानकों के आधार पर दी जानी थी। सभी प्रतियोगियों को भाषण के लिए 3 मिनट का समय दिया गया था।
सभी ने एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियां दीं। प्रथम विजेता एक महिला प्रोफेसर थी, जिसका नाम नीलिमा था। पैंतीस के वय में थी वह। जितनी सुंदर थी, उतनी ही सुंदर प्रस्तुति थी उसकी। प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ का वाचन किया था उसने। वह पहली प्रतियोगी थी, जिसने प्रेमचंद जी की कहानी ‘नशा’ को कुछ मामलों में अप्रासंगिक बताया था। अन्यथा, प्रेमचंद जी जैसे बड़े कथाकार की रचनाओं को अप्रासंगिक बताने या कहने की हिम्मत आज भी किसी वक्ता या साहित्यकार में नहीं है। नीलिमा ने कहा, ‘प्रेमचंद जी ने जब ‘नशा’कहानी लिखी थी, उस समय और आज के परिवेश में जमीन-आसमान का अंतर है। प्रेमचंद जी के जीवनकाल में भारत गुलाम था। हिंदी साहित्य की कोई विकसित परंपरा नहीं थी, हिंदी में छिट-पुट लेखन किए जा रहे थे, जिनमें उर्दू शब्दों का बाहुल्य था। लेकिन लगभग 100 सालों में हजारों/लाखों नए शब्द हिंदी साहित्य से जुड़ गए हैं, तकनीक के स्तर पर भी कई बदलाव आए हैं, कविताओं और कहानियों में बिंब और प्रतीक के प्रतिमान बदल गए हैं। ऐसे में आज के संदर्भ में प्रेमचंदजी की कहानियों को प्रांसगिक नहीं कहा जा सकता है। आज के अधिकांश युवा प्रेमचंद जी की कहानियों के साथ खुद को कनेक्ट नहीं कर पाते हैं। हां, प्रेमचंद जी की कहानियों में अंतर्निहित सामाजिक संदेश आज भी प्रासंगिक हैं-जैसे, कहानी ‘नशा’ में अमीर और गरीब के बीच में व्याप्त विषमता को रेखांकित किया गया है, जो आज भी प्रासंगिक है। कहानी में यह भी कहा गया है कि मौका मिलने पर शोषित भी शोषक बन जाता है भी मौजूदा परिवेश में मौजूं है आदि।
पुरस्कार ग्रहण करने के बाद नीलिमा दोबारा मनीष से मिलने आई, बोली, ‘सर, सुना है आपने भी माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविधालय से पढ़ाई की है।’
मनीष बोला,‘हां’। नीलिमा फिर बोली, ‘सर, मैं आपकी फैन हूं, आपके लेखों से ज्यादा मुझे आपकी गजलें पसंद हैं, मैंने मुशायरों में भी आपको सुना है, आपकी कहानियों को भी मैं नियमित रूप से पढ़ती हूं, आपकी रचनाओं में प्रेमचंद जी की कहानियों की तरह सामाजिक विषमताओं को दूर करने की प्रवृति देखती हूं, जो अन्य रचनाकारों की रचनाओं में देखने को नहीं मिलती हैं।’
कुछ पल चुप रहने के बाद नीलिमा कहती है, ‘सर आप कहां रहते हैं।’ मनीष ने कहा, ‘मैं शाहपुरा के ‘सी’ सेक्टर में रहता हूं।’
‘ओह, यह तो बहुत अच्छी बात है सर। मैं भी वहीं ‘बी’ सेक्टर में रहती हूं।’, नीलिमा ने कहा। ‘फिर तो हम दोनों रोज मिल सकते हैं’, मनीष ने हंसते हुए कहा। नीलिमा भी मुस्कराते हुए बोली, ‘अगर ऐसा होता है तो वह मेरा सौभाग्य होगा।’
नीलिमा के घर में पत्रकारिता का माहौल था। उसके पिता जयशंकर त्रिपाठी नवभारत, रायपुर संस्करण के संपादक थे। उसका छोटा भाई एक राष्ट्रीय टीवी चैनल में सीनियर प्रोडूसर था। इसलिए,नीलिमा ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में करियर बनाना बेहतर समझा। शुरू में वह भोपाल के कुछ क्षेत्रीय दैनिकों में काम की। बाद में एक राष्ट्रीय टीवी चैनल में भी काम किया। कहीं, उसका मन नहीं लगा। फिर माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की प्रोफेसर बन गई। करियर को बेहतर बनाने में कैसे वक्त निकल गया, नीलिमा को पता ही नहीं चला। वह 35 वर्ष की हो चुकी थी। हालांकि, इस भागमभागी में उसके मन में विवाह का कभी ख्याल नहीं आया। अभी भी शादी के प्रति बहुत ज्यादा गंभीर नहीं थी। उसका मानना था कि जब किसी से दिल मिलेगा तभी वह शादी करेगी। अरेंज मैरिज के खिलाफ थी वह।
मनीष और नीलिमा की मिलने की आवृति धीरे-धीरे बढ़ने लगी। आहिस्ता-आहिस्ता नीलिमा और मनीष नजदीक आने लगे। दोनों काफी खुल गए थे। दोनों अपने सुख-दुख: भी साझा करने लगे थे। नीलिमा, मनीष के साथ कुछ ज्यादा ही सहज हो गई थी। वह मनीष को सर की जगह उसके नाम से पुकारने लगी। अब तो वह अपनी बात मनवाने के लिए जिद भी करने लगी थी। नीलिमा के आगे मनीष कमजोर पड़ने लगता था। नीलिमा के सामने मनीष की एक भी नहीं चलती थी। मनीष को नीलिमा के सामने झुकना ही पड़ता था।
भोपाल का मौसम ठंड में बहुत ही खुशगवार रहता है। मौसम का आनंद उठाने के लिए नीलिमा और मनीष शाम को बड़ी झील अक्सर जाने लगे। कभी-कभार वे भारत भवन भी चले जाते थे। दोनों को नाटक देखना बहुत पसंद था। घंटों झील की लहरों को निहाराना दोनों को अच्छा लगता था। झील के किनारे होटल रंजीत था, जिसके व्यंजन बहुत ही स्वादिष्ट होते थे। वे कई बार होटल रंजीत से डिनर करके घर वापिस लौटते थे।
मनीष की पत्नी ने एक बार हंसते हुए मनीष से पूछा भी था, ‘क्या डार्लिंग आजकल घर आने में बहुत देर हो रही है, कोई इश्क-विश्क का चक्कर तो नहीं है।’ मनीष ने मुस्कराते हुए कहा था, ‘मुझ जैसे बूढ़े को कौन घास डालेगी?’ पुन: मनीष ने कहा, ‘तुम्हीं प्रमोशन की रट लगाए हुए थीं, अब भुगतो। बैंक में कितना काम होता है, तुम्हें मालूम ही है, आजकल काम बढ़ गया है, आगे आने वाले दिनों में मेरी मसरुफियत और भी बढ़ने वाली है।’
नीलिमा,मनीष को पसंद करने लगी थी, लेकिन दिल की बात जुबान पर लाने में उसे डर लग रहा था। उसे इस बात की चिंता थी कि मनीष क्या सोचेगा, क्योंकि वह पहले से शादी-शुदा था। फिर भी, उसे मनीष के साथ वक्त बिताने में मजा आता था। वर्किंग डे में वह हर दिन मनीष से मिलती थी। छुट्टियों में भी वह बहाना करके मनीष के घर चली जाती थी। मनीष की पत्नी खुले ख्यालों वाली थी। इसलिए, नीलिमा का घर आना उसे असहज नहीं लगता था।
एक दिन दोनों भारत भवन में भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कहानी ‘अंधेरे नगरी’ का मंचन देख रहे थे। मध्यांतर में मनीष कुछ स्नैक्स ले आता है। नीलिमा आज घर से मन बनाकर आई थी कि वह अपने प्यार का इजहार मनीष के समक्ष जरूर करेगी। पॉपकार्न का पैकेट खत्म होने वाला था, फिर भी वह हिम्मत नहीं जुटा पाई थी। बड़ी मुश्किल से नीलिमा, मनीष से कहती है,‘मुझे एक बहुत जरूरी बात तुमसे कहनी है।’ मनीष कहता है, ‘कहो।’ नीलिमा थोड़ी देर चुप रहती है, फिर कहती है,‘कैसे कहूं, समझ में नहीं आ रहा है।’ ‘अरे कह भी दो, ज्यादा नहीं सोचो’, मनीष कहता है। ‘मनीष, मैं तुमसे से बेहद प्यार करती हूं, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती हूं, मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं’, सकुचाते हुए नीलिमा ने कहा।
नीलिमा थोड़ी देर तक मनीष का चेहरा एकटक देखते रहती है, फिर बोली, ‘मुझे मालूम है कि तुम शादी-शुदा हो, तुम्हारे बच्चे हैं और तुम्हारी अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारीभी है, लेकिन क्या करूं, मेरा दिल मानता ही नहीं है।’ नीलिमा की बात मनीष शांतचित होकर सुनता है। मनीष के चेहरे पर विचलन के कोई भाव दिखाई नहीं देते हैं। वह काफी देर तक चुप रहता है। नीलिमा कहती है, ‘क्या हुआ, क्यों शांत हो, कुछ तो कहो।’ काफी देर के बाद मनीष कहता है, ‘मुझे पहले से अहसास था कि तुम मुझसे प्यार करने लगी हो, लेकिन मैं जानकर भी अंजान बना हुआ था, क्योंकि मैं भी तुम्हें पसंद करता हूं, मुझे भी तुम्हारे साथ रहना अच्छा लगता है, इसलिए मैं स्वार्थी बना हुआ था। मैं जानता था, जिस दिन मैं या तुम प्यार का इजहार करेंगे, उसी दिन हम दोनों का मिलना-जुलना बंद हो जाएगा, इसलिए मैं चुप था। मैं तुम्हारे साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहता था।’
मनीष थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर कहता है, ‘मेरे हिसाब से हमारे बीच का संबंध गलत नहीं है, लेकिन परिस्थिति ऐसी है कि हम शादी नहीं कर सकते हैं, पत्नी और बच्चों के प्रति मेरी जो जिम्मेदारी है उससे मैं भाग नहीं सकता हूं।’ मनीष पुनश्च कहता है, ‘प्यार स्थाई नहीं होता है, परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। जिंदगी एक दिन की नहीं होती है। इसकी यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आते हैं, दुनिया में बहुत कम युगल ऐसे मिलेंगे, जो ता-उम्र एक समान प्यार करते हैं। हो सकता है कुछ सालों बाद मैं भी तुम्हारी जगह किसी दूसरे से प्यार करने लगूं, इसलिए मुझे लगता है, हमें दिल की जगह दिमाग की बात सुननी चाहिए और युगल की तरह मिलना-जुलना अब बंद कर देना चाहिए। संयम बरतने में ही हम दोनों की भलाई है। नहीं तो दोनों को नुकसान होगा। समय हर घाव को भर देता है। यह घाव भी वक्त बीतने के साथ भर जाएगा।’ नीलिमा, मनीष की बात सुनकर कुछ देर तक निशब्द बैठी रही, फिर,भारी मन से निकास द्वार की ओर अपने दोनों पावों को लगभग घसीटते हुए आगे बढ़ गई।