- बागपत लोकसभा सीट पर एक बार भी जीत दर्ज नहीं कर पाई बसपा
- विधानसभा में दो सीटों पर जीतने के बाद भी लोकसभा में रही विफल
- हर चुनाव में बदले प्रत्याशी, 2009 में जरूर रोचक हो गया था मुकाबला
अमित पंवार |
बागपत: बागपत लोकसभा सीट पर कांग्रेस, भाजपा ने जीत का स्वाद जरूर चखा है, लेकिन बसपा यहां आज तक एक अदद जीत के लिए छटपटा रही है। बसपा के लिए यह अभेद किला साबित हो रहा है। या यूं कहा जाए कि हाथी की चिंघाड बागपत लोकसभा सीट पर मंद पड़ जाती है। बसपा यहां हर चुनाव में नए-नए चेहरों पर दांव चलती दिखती है, मगर उसके चेहरे एक जीत पार्टी को नहीं दिला पाए हैं। जबकि विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर बसपा यहां कब्जा पूर्व में जमा चुकी है, उसके बाद लोकसभा में बसपा को हार मिलती आई है। वर्ष 2009 के चुनाव में जरूर बसपा ने यहां मुकाबला रोचक कर दिया था, लेकिन उसके प्रत्याशी द्वारा चौधरी चरण सिंह पर टिप्पणी कर दी थी, जिसके बाद चुनाव के समीकरण ही बदल गए थे। अब बसपा ने फिर से यहां गुर्जर कार्ड चला है। देखा जाए तो एक नए चेहरे को जनता के बीच बसपा ने उतारा है।
बागपत लोकसभा सीट पर बसपा नए-नए प्रयोग करके थक चुकी है, मगर यहां उसे एक जीत नहीं मिल पाई है। वर्ष 1996 में चरण सिंह त्यागी को बसपा ने बागपत लोकसभा सीट पर उतारा था। इस चुनाव में बसपा के खाते में महज 8.45 प्रतिशत वोट ही आए थे। वर्ष 1998 में बसपा ने नए चेहरे की तलाश करते हुए ठाकुर कार्ड चलते हुए अजय को प्रत्याशी बनाया। इस चुनाव में बसपा को 11.06 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि भाजपा प्रत्याशी सोमपाल शास्त्री को 37 प्रतिशत व चौधरी अजित सिंह को 30.75 प्रतिशत वोट मिले थे। वर्ष 1999 में बसपा ने फिर नए चेहरे के रूप में टेकचंद को उतारा था और वोट प्रतिशत थोड़ा बढ़ा। बसपा को 13.33 प्रतिशत वोट मिले थे। चौधरी अजित सिंह को 48.25 व सोमपाल शास्त्री को 27.44 प्रतिशत वोट मिले थे। वर्ष 2004 में बसपा ने औलाद अली को मैदान में उतारा था। इस चुनाव में बसपा का वोट बैंक पिछले चुनाव की सापेक्ष बढ़ा था। औलाद अली को 20.18 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि चौधरी अजित सिंह को 53.76 प्रतिशत वोट मिले थे।
बसपा इस चुनाव में दूसरे स्थान पर पहुंच गई थी। वर्ष 2009 में बसपा ने रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह के सामने ब्राह्मण कार्ड चला और गुड्डु पंडित के भाई मुकेश शर्मा को प्रत्याशी बनाया था। इस चुनाव में बसपा ने मुकाबला रोमांचक कर दिया था। परंतु उसके प्रत्याशी द्वारा चुनाव में चौधरी चरण सिंह के खिलाफ टिप्पणी कर दी थी। जिससे जनपद में आक्रोश पनप गया था और चुनाव ने पलटी मार दी थी। बसपा फिर से यह चुनाव हार गई थी। वर्ष 2014 में बसपा ने गुर्जर कार्ड चलते हुए प्रशांत चौधरी को टिकट दिया था। परंतु वह भी महज 14.11 प्रतिशत वोट ही ले पाए थे। इस चुनाव में भाजपा से डॉ. सत्यपाल सिंह को सर्वाधिक 42.15, सपा के गुलाम मोहम्मद को 21.26 प्रतिशत वोट मिले थे। वर्ष 2019 में रालोद व बसपा साथ चुनाव लड़े थे। अब इस चुनाव में बसपा ने यहां गुर्जर कार्ड खेलते हुए प्रवीण बैसला को चुनावी मैदान में उतारा है। राजनीतिक मंच पर वह भले ही कितने सक्रिय हो, लेकिन जनता के बीच बसपा ने एक नए चेहरे को उतारा है।
बसपा का परंपरागत वोट बैंक भी उससे खिसकता हर चुनाव में दिखाई दिया। बता दें कि बसपा ने वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में रालोद के गढ़ में सेंधमारी करते हुए तीन विधानसभा सीटों में से बड़ौत व बागपत पर कब्जा जमा लिया था। परंतु लोकसभा तक पहुंचते-पहुंचते उसके हाथी की चिंघाड दबती नजर आती है। या यूं कहा जाए कि बसपा के हाथी की गरजना का दबदबा कायम करने वाला चेहरा उसे यहां नहीं मिला है। चेहरे पर चेहरे तो बदले, परंतु एक जीत का स्वाद कभी नहीं चखा। देखना यह है कि इस बार बसपा यहां क्या गुल खिलाती है?